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पितृपक्ष विशेष- श्राद्ध मृत्यु-तिथि पर क्यों करना चाहिए ?

१. श्राद्ध मृत्यु-तिथि पर क्यों करना चाहिए ?

प्रत्येक कार्य का कोई-न-कोई कारण होता है । उसका प्रभाव कर्ता, समय, स्थल आदि पर निर्भर होता है । इन सभी का उचित मेल होने पर, कार्य की सफलता निच्छित होती है तथा कर्ता को विशेष लाभ होता है । जब कार्य ईश्वर की योजनानुसार होता है, तब वह इच्छा, क्रिया एवं ज्ञान, इन तीन शक्तियों की सहायता से सगुण रूप धारण कर, साकार होता है । प्रत्येक तिथि, उस दिन जन्मे व्यक्ति को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करनेवाली स्रोत होती है । अतः, विशिष्ट तिथि पर जन्मे विशिष्ट जीव के नाम से किया जानेवाला कर्म, उसे ऊर्जा प्रदान करता है । प्रत्येक कार्य विशिष्ट तिथि अथवा मुहूर्त पर करना विशेष लाभदायक है; क्योंकि उस दिन उन कर्मों का कालचक्र, उनका प्रत्यक्ष होना तथा उनका परिणाम, इन सभी के स्पंदन एक-दूसरे के लिए सहायक होते हैं । ‘तिथि’, उस विशिष्ट घटनाचक्र को पूरा करने के लिए आवश्यक तरंगों को सक्रिय करती है ।

२. पितृपक्ष में श्राद्ध क्यों करना चाहिए ?

पितृपक्ष में वायुमंडल में तिर्यक (रज-तमात्मक) तथा यम तरंगों की अधिकता होती है । इसलिए, पितृपक्ष में श्राद्ध करने से रज-तमात्मक कोषवाले पितरों के लिए पृथ्वी के वायुमंडल में आना सरल होता है । इससे ज्ञात होता है कि हिन्दू धर्म में बताए गए धार्मिक कृत्य विशिष्ट काल में करना अधिक कल्याणकारी है ।

२ अ. वार्षिक श्राद्ध करने के उपरांत भी पितृपक्ष में श्राद्ध क्यों करना चाहिए ?

वार्षिक श्राद्ध किसी एक व्यक्ति की मृत्यु तिथि पर किया जाता है । इसलिए, ऐसे श्राद्ध से उस विशेष पितर को गति मिलती है और उसका ऋण चुकाने में सहायता होती है । यह हिन्दू धर्म में व्यक्तिगत स्तर पर ऋणमुक्ति की व्यष्टि उपासना है तथा पितृपक्ष में श्राद्ध कर सभी पितरों का ऋण चुकाना, समष्टि उपासना है । व्यष्टि ऋण चुकाने से उस विशेष पितर के प्रति कर्तव्यपालन होता है तथा समष्टि ऋण चुकाने से एक साथ सभी पितरों से लेन-देन पूरा होता है । जिनसे हमारा घनिष्ठ संबंध होता है, उन्हीं की एक-दो पीढियों के पितरों का हम श्राद्ध करते हैं; क्योंकि उन पीढियों से हमारा प्रत्यक्ष संबंध रहा होता है । ऐसे पितरों में, अन्य पीढियों की अपेक्षा पारिवारिक आसक्ति अधिक होती है । उन्हें इस आसक्ति-बंधन से मुक्त कराने के लिए वार्षिक श्राद्ध करना आवश्यक होता है । इनकी तुलना में उनके पहले के पितरों से हमारा उतना गहरा संबंध नहीं रहता । उनके लिए पितृपक्ष में सामूहिक श्राद्ध करना उचित है । इसलिए, वार्षिक श्राद्ध तथा पितृपक्ष का महालयश्राद्ध, दोनों करना आवश्यक है ।

२ आ. पति से पहले मरनेवाली पत्नी का श्राद्ध पितृपक्ष की नवमी (अविधवा नवमी) तिथि पर ही क्यों करना चाहिए ?

‘नवमी के दिन ब्रह्मांड में, रजोगुणी पृथ्वी-तत्त्व तथा आप-तत्त्व से संबंधित शिवतरंगों की अधिकता रहती है । ये शिव-तरंगें श्राद्ध में प्रक्षेपित होनेवाली मंत्र-तरंगों की सहायता से सुहागन की लिंगदेह को प्राप्त होती हैं । इस दिन शिवतरंगों का प्रवाह भूतत्त्व और आपतत्त्व से मिलकर संबंधित लिंगदेह को आवश्यक ऊर्जा प्रदान करने में सहायता करता है । इससे, सुहागिन के शरीर में पहले से स्थित स्थूल शक्तितत्त्व का संयोग सूक्ष्म शिवशक्ति के साथ सरलता से होता है और सुहागिन की लिंगदेह तुरंत ऊपरी लोकों की ओर प्रस्थान करती है ।

इस दिन शिवतरंगों की अधिकता के कारण सुहागिन को सूक्ष्म शिव-तत्त्व मिलता है । फलस्वरूप, उसके शरीर में स्थित सांसारिक आसक्ति के गहरे संस्कारों से युक्त बंधन टूटते हैं, जिससे उसे पति-बंधन से मुक्त होने में सहायता मिलती है । इसलिए, रजोगुणी शक्तिरूप की प्रतीक सुहागिन का श्राद्ध महालय (पितृपक्ष) में शिवतरंगों की अधिकता दर्शानेवाली नवमी तिथि पर करते हैं ।

३. श्राद्ध का महीना ज्ञात है, किंतु तिथि ज्ञात नहीं है, तब उस माह की शुक्ल अथवा कृष्ण पक्ष की एकादशी अथवा अमावस्या तिथि पर श्राद्ध क्यों करना चाहिए ?

इस दिन वायुमंडल में पितरों के लिए सहायक यमतरंगें अधिक होती हैं । अतः, इस दिन जब पितरों का मंत्र से आवाहन किया जाता है, तब मंत्र की शक्ति यमतरंगों के माध्यम से पितरों तक पहुंची है । इससे पितर अल्पकाल में आकर्षित होते हैं और यमतरंगों के प्रबल प्रवाह पर आरूढ होकर, पृथ्वी के वायुमंडल में सहजता से प्रवेश करते हैं ।

(हिन्दू धर्म में आनंदमय जीवन के इतने मार्ग उपलब्ध होने पर भी, लोग श्राद्ध नहीं करते । ऐसे हिन्दुओं की सहायता कौन करेगा ? – संकलनकर्ता)

४. प्राय: संध्या, रात्रि, संधिकाल एवं उनके निकट का समय श्राद्ध के लिए क्यों वर्जित रहता है ?

४ अ. संध्याकाल, रात्रि, संधिकाल तथा उनके आस-पास के समय में वायुमंडल रज-तम से दूषित रहता है । अतः, जब लिंगदेह श्राद्धस्थल पर आते हैं, तब उनके मांत्रिकों के चंगुल में फसने की आशंका अधिक रहती है । इसलिए, उपर्युक्त कालों में श्राद्ध करना मना है ।

‘संध्याकाल, रात्रि एवं संधिकाल के निकट के समय में लिंगदेहों से संबंधित ऊर्जा-तरंगों का प्रवाह तीव्र रहता है । इसका लाभ उठाकर अनेक अनिष्ट शक्तियां इस गतिमान ऊर्जास्रोत के साथ पृथ्वी के वायुमंडल में आती हैं । इसलिए, इस काल को ‘रज-तम तरंगों का आगमनकाल’ भी कहते हैं ।’

संध्याकाल वातावरण में तिर्यक तरंगें प्रबल रहती हैं, संधिकाल में विस्फुटित तरंगें प्रबल रहती हैं तथा रात्रि के समय विस्फुटित, तिर्यक और यम तीनों प्रकार की तरंगें प्रबल रहती हैं । इसलिए, इस समय वातावरण अत्यंत ऊष्ण ऊर्जा से प्रभारित रहता है । श्राद्ध के समय जब विशिष्ट पितर के लिए संकल्प और आवाहन किया जाता है, तब उनका वासनायुक्त लिंगदेह वायुमंडल में आता है । ऐसे समय यदि वायुमंडल रज-तम कणों से प्रभारित रहेगा, तब उसमें संचार करनेवाली अनिष्ट शक्तियां, पितरों का मार्ग रोक सकती हैं । कभी-कभी तो मांत्रिक किसी पितर को अपने नियंत्रण में लेकर उनसे बुरा कर्म करवाते हैं । इससे उन्हें नरकवास भोगना पडता है । इसलिए, यथासंभव वर्जित समय में श्राद्धादि कर्म नहीं करने चाहिए । इससे पता चलता है कि हिन्दू धर्म में बताए गए कर्मों का विधिसहित पालन करना कितना महत्त्वपूर्ण है । विधि-विधान से धर्मकर्म करने पर ही इष्ट फल की प्राप्ति होती है ।

४ आ. सायंकाल श्राद्ध करने पर, पहले से प्रदूषित वायुमंडल अधिक दूषित होना; फलस्वरूप श्राद्ध के पुरोहित और यजमान दोनों को महापाप लगना

‘सायंकाल के वातावरण में बडी मात्रा में रज-तम भरा होता है । इस समय ब्रह्मांड में भी पृथ्वी और आप तत्त्वों की सहायता से सक्रिय रज-तमात्मक तरंगें अधिक होती हैं । ये तरंगें भारी होने के कारण इनका आकर्षण नीचे, अर्थात पाताल की ओर होता है । इन तरंगों से वातावरण में निर्मित अति दबाववाले क्षेत्र के कारण, धरती से संबंधित तिर्यक एवं विस्फुटित तरंगें सक्रिय होती हैं ।

 

यदि ऐसे रज-तमात्मक वातावरण में व्यक्ति अपने पितरों के लिए श्राद्धादि शांतिकर्म करता है, तब पितर अपने रज-तमात्मक वासनामय कोषसहित वातावरण में प्रवेश कर, पहले से ही प्रदूषित सायंकालीन वायुमंडल को अधिक दूषित करते हैं । इससे, श्राद्ध के पुरोहित और यजमान दोनों को महापाप लगता है और उन्हें नरकवास भोगना पडता है । अतः, यथासंभव सायंकाल रज-तमात्मक कर्म नहीं करने चाहिए ।

संदर्भ : सनातन का ग्रंथ ‘श्राद्ध (भाग – १) महत्त्व एवं अध्यात्मशास्त्रीय विवेचन’

 

 

विनीत,

श्री. गुरुराज प्रभु

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