शारदीय नवरात्रि शुरू हो गया है। यूपी में बाबा भोलेनाथ की नगरी और भगवान विष्णु की नगरी प्रयाग के बीच विंध्याचल धाम स्थित है।विंध्यवासनी मंदिर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में मिर्जापुर और वाराणसी के करीब विंध्याचल शहर में हैं। विंध्याचल मंदिर देवी विंध्यवासनी के लिए प्रसिद्ध हैं जोकि हिंदू धर्म की
नव देवियों में से एक हैं और 51 शक्तिपीठो में शामिल हैं। सबसे दिलचस्प नजारा यहाँ नवरात्री के अवसर पर होता है जब पूरे शहर को नव देवी की पूजा, अर्चना और भक्ति के लिए दीयों, मंत्रो और फूलो से सजाया जाता हैं।
मान्यता है कि यहां सूर्य की सबसे पहली किरण पड़ती है। श्वामन पुराण के 18वें अध्याय में इस बात का उल्लेख है कि सूर्य का रास्ता रोकने वाला इस संसार में एकमात्र विंध्य पर्वत ही था। विंध्य पर्वत ने सूर्यदेव का रास्ता रोक दिया था, जिसके बाद वह विंध्य के गुरु अगस्त्य मुनि की शरण में गए। सूर्य की प्रार्थना सुनकर गुरु अगस्त्य मुनि ने विंध्य पर्वत से कहा कि वह अपना आकार बढ़ाना रोक दे। वे अब बूढ़े हो चले हैं। उनसे अब और ऊंचाई पर चढ़ पाना इस बढ़ती उम्र में असंभव है। इसके बाद विंध्य पर्वत ने अपना आकार बढ़ाना रोक दिया, जिससे सूर्य को आगे बढ़ने का रास्ता मिलना संभव हो पाया।
किवदंतिया हैं कि
पर्वतराज विंध्य के ऊपरी शिखर पर आज भी मां भगवती दुर्गा निवास करती हैं। यहां पर शाम को भी सूर्यास्त के समय भगवान सूर्य की किरणें देवी के चरणों में पड़ती है। यहां पर आदि शक्ति तीन रूपों में दर्शन देती है। पहला मां विंध्यवासिनी, दूसरा मां काली और तीसरा मां सरस्वती। इन्हें अष्टभुजा के रूप में भी जाना जाता है। पं. मोहित मिश्रा बताते हैं कि यह स्थान देश का भी केंद्र बिंदु है। विंध्य पर्वत पर विराजमान आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी की महिमा अपरम्पार है। भक्तों के कल्याण के लिए सिद्धपीठ विंध्याचल में सशरीर निवास करने वाली माता विंध्यवासिनी का धाम मणिद्वीप के नाम से विख्यात है। यहां आदि शक्ति माता विंध्यवासिनी अपने पूरे शरीर के साथ विराजमान हैं जबकि देश के अन्य शक्तिपीठों में सती के शरीर का एक-एक अंग गिरा है। संसार का एक मात्र ऐसा स्थल है जहां मां सत, रज, तम गुणों से युक्त महाकाली, महालक्ष्मी, और अष्टभुजा तीनों रूप में एक साथ विराजती हैं।
विंध्याचल और देवी विंध्यवासिनी की उदारता का उल्लेख भारत वर्ष के कई प्राचीन शास्त्रों और ग्रंथो में किया गया है। मार्कंडेय पुराण में देवी दुर्गा और महिषासुर के बीच हुए युद्ध का विस्तृत वर्णन देखने को मिलता हैं। विंध्याचल मंदिर के इतिहास पर नजर डालने पर हमें कई प्राचीन कथाओं का वर्णन देखने को मिलता हैं। विंध्यवासनी देवी दुर्गा बुराई पर अच्छाई की जीत के लिए जानी जाती है। विंध्याचल वह स्थान हैं जहां देवी दुर्गा और दानव राजा महिषासुर के बीच बहुत भायंकर युद्ध हुआ था जिसमे देवी दुर्गा ने महिषासुर देत्य का बध करके मानव जाती की रक्षा की और श्रेष्टी को पाप मुक्त किया था। महिषासुर दानव का बध करने के
कारण देवी दुर्गा को महिषासुर मर्दनी भी कहते हैं। यह प्राचीन मंदिर समाज की पुरुषवादी ताकतों पर दैवीय नारी शक्ति की इस महान जीत की गाथा को बयान करता हैं।
देवी पार्वती ने इसी स्थान पर तपस्या करके अपर्णा नाम पाया था और भगवान भोलेनाथ को प्राप्त किया। भगवान श्री राम ने यहाँ के गंगा घाट पर अपने पितरो को सिराद दर्पण किया और रामेश्वर लिंग की स्थापना की। विंध्याचल तपोवन में भगवान विष्णु का अपने सुदर्शन चक्र की प्राप्ति हुई थी। विंध्याचल सिद्ध देवी पीठ अति प्राचीन काल से ही महर्षियों, योगियों, तपस्वियों की श्रधा, आस्था, सात्विकता और मुक्तिप्रदाता का मंगल क्षेत्र रहा है। इस पावन भूमि पर अनेक सिद्ध तपस्वियों ने तपस्या की थी।
श्रीमद्देवीभागवत के दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपा को उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुव मनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
विंध्याचल मंदिर में दर्शन करने का समय सुबह 5:00 बजे से दोपहर 12:00 बजे तक, दोपहर 1:30 से 7:15 बजे, शाम के 8:15 बजे से 10:30 बजे तक हैं। विंध्याचल मंदिर आप वर्ष में किसी भी वक्त जा सकते हैं, लेकिन विंध्याचल देवी माँ का स्थान हैं जोकि नवरात्री के अवसर पर अदभुत नजरा प्रस्तुत करता हैं इसलिए आप नवरात्रि के त्यौहार के अवसर पर भी विंध्याचल का सफ़र आदर्श माना जाता हैं।