ट्विटर विवाद- बाकी मीडिया की तरह ट्विटर क्यों नहीं बताता है कि कौन सा ट्रेंड पेड है या ऑर्गेनिक?- प्रो. मकरंद आर परान्जपे
ट्विटर विवाद को जो लोग अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन से जोड़ रहे हैं, उन्हें यह समझना चाहिए कि ट्विटर भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाने के लिए नहीं है, बल्कि वो यहां केवल बिजनेस करने के लिए है। यही नहीं बाकी मीडिया की तरह ट्विटर यह क्यों नहीं बताता है कि कौन सा ट्रेंड पेड है और कौन सा ऑर्गेनिक? ये सवाल इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ एडवांस्ड स्टडीज के निदेशक प्रो. मकरंद आर परान्जपे ने किया है।
10 फरवरी को ट्विटर द्वारा प्रकाशित ब्लॉग पोस्ट पर प्रो. परान्जपे ने कहा, “जिस तरह से इस मुद्दे के इर्द गिर्द अंतरराष्ट्रीय मीडिया में तमाम तरह की बातें की जा रही हैं, उसे देखते हुए मेरे जहन में एक ही बात आती है, वो यह कि ट्विटर भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रोत्साहित करने या बचाने के लिए नहीं है, बल्कि वो यहां केवल बिजनेस करने के लिए है।”
पीबीएनएस से बातचीत में प्रो. परान्जपे ने कहा, “जब हम पारदर्शिता की बात करते हैं, तो हमें ट्विटर से भी पूछना चाहिए कि वो कितना पारदर्शी है। उदाहरण के लिए अगर आप किसी भी समाचार पत्र को उठायेंगे या आप किसी न्यूज चैनल को देखेंगे तो पायेंगे कि वे हमेशा आपको बताते हैं कि उसमें क्या समाचार है और क्या विज्ञापन या कौन सा कंटेंट एडवर्टोरियल है। क्या ट्विटर यह बताता है कि उसकी फीड में कौन सा कंटेंट पेड है और कौन सा ऑर्गेनिक है। हम सभी जानते हैं कि ट्विटर या किसी अन्य सोशल मीडिया कंपनी में पैसा देकर ट्रेंड सेट किया जा सकता है। क्या वे हमें बताते हैं कि कौन से ट्रेंड पेड हैं और कौन से ऑर्गेनिक? इससे यह साफ है कि ट्विटर स्वयं इतना पारदर्शी नहीं है जो बताये कि कौन सा ट्रेंड पेड है और कौन सा नहीं, किसको इससे लाभ मिल रहा है और ट्रेंड या ट्रेंडिंग ट्वीट्स का समाज पर इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है।”
उन्होंने कहा कि हम सभी जानते हैं कि सोशल मीडिया पर अपलोड की गई जानकारी का बहुत बड़ा प्रभाव आम जनता पर पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि दुनिया भर में सारी फर्जी खबरें सोशल मीडिया के जरिए ही फैलाई जाती हैं। इसका लोगों पर प्रभाव भी पड़ता है, खास तौर से उन लोगों पर जो मुद्दे से जुड़े हुए होते हैं। इससे लोगों को मानसिक समस्याएं हो सकती हैं, लोगों को पैनिक अटैक हो सकता है, यहां तक दंगे व हिंसा तक हो सकती है। क्योंकि लोग इतने सक्षम नहीं हुए हैं, जो यह पहचान सकें कि सोशल मीडिया पर क्या सच है और क्या झूठ?
प्रो. परान्जपे का कहना है कि ऐसे में गूगल, ट्विटर, इंस्टाग्राम, टेलीग्राम, नेटफ्लिक्स, आदि जैसी बड़ी टेक कंपनियों की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे कंटेंट की मॉनीटरिंग को इस प्रकार सुनिश्चित करें कि लोग समझ पायें कि क्या सच है और क्या झूठ, कौन सी खबर सही है और कौन सी खबर फर्जी है। ऐसा कंटेंट पहचानने में लोगों की मदद करें, जिनके जरिए जानबूझ कर लोगों को गलत सूचनाएं देकर प्रभावित करने की कोशिशें होती हैं।
उन्होंने कहा, “राज्यसभा में केंद्रीय न्याय एवं विधि मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने एकदम सही कहा कि भारत में हम स्वतंत्रता का सम्मान करते हैं, हम अलोचनाओं का सम्मान करते हैं लेकिन हमारे संविधान के अनुसार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर भी कुछ सीमाएं तय हैं। सभी को देश के कानून का पालन करना होगा। जब हमारे देश का हर नागरिक कानून का पालन कर रहा है, तो ट्विटर या कोई भी सोशल मीडिया कंपनी उससे अलग कैसे हो सकती है।”
प्रो. परान्जपे ने आगे कहा कि ऑस्ट्रेलिया व यूरोपियन यूनियन में बड़ी टेक्नोलॉजी कंपनियों के खिलाफ एंटी-ट्रस्ट लेजिस्लेशन लाया गया, ताकि लोगों पर उनके प्रभाव को कम किया जा सके। भारत इन देशों से अलग कैसे हो सकता है। एक बात और, हमारे पड़ोसी देश में बीबीसी को प्रतिबंधित कर दिया गया, अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कोई कुछ नहीं बोला, लेकिन जब भारत सरकार अपने नागरिकों तक झूठी खबरों की पहुंच से दूर रखना चाहती है तो इतनी आलोचना क्यों हो रही है। क्या भारत सरकार के पास अपने नागरिकों को गलत खबरों से बचाने का अधिकार नहीं है।