गीता के अमृत तत्व, इसे सभी को जरूर पढ़ना चाहिए। खूब पढ़े और शेयर करें
।।श्रीमद्भवद्गीता।।
अध्याय : 1 | श्लोक : 2
धृतराष्ट्रके प्रश्नका उत्तर संजय आगेके श्लोकसे देना आरम्भ करते हैं।
।।श्लोक।।
दृष्ट्वा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा।
आचार्यमुपसङ्गम्य राजा वचनमब्रवीत्॥ २॥
अर्थ:-
उस समय वज्रव्यूहसे खड़ी हुई पाण्डव-सेनाको देखकर और द्रोणाचार्यके पास जाकर राजा दुर्योधन (यह) वचन बोला।
।।शब्दार्थ।।
तदा = उस समय
व्यूढम् = वज्रव्यूहसे खड़ी हुई
पाण्डवानीकम् = पाण्डव-सेनाको
दृष्ट्वा = देखकर
तु = और
आचार्यम् = द्रोणाचार्यके
उपसङ्गम्य = पास जाकर
राजा = राजा
दुर्योधन: = दुर्योधन (यह)
वचनम् = वचन
अब्रवीत् = बोला।
‘तदा’—जिस समय दोनों सेनाएँ युद्धके लिये खड़ी हुई थीं, उस समयकी बात संजय यहाँ ‘तदा’ पदसे कहते हैं। कारण कि धृतराष्ट्रका प्रश्न ‘युद्धकी इच्छावाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंने क्या किया’—इस विषयको सुननेके लिये ही है।
‘दृष्ट्वा पाण्डवानीकं व्यूढम्’—पाण्डवोंकी वज्रव्यूह-से खड़ी सेनाको देखनेका तात्पर्य है कि पाण्डवोंकी सेना बड़ी ही सुचारुरूपसे और एक ही भावसे खड़ी थी अर्थात् उनके सैनिकोंमें दो भाव नहीं थे, मतभेद नहीं था। उनके पक्षमें धर्म और भगवार्ति श्रीकृष्ण थे। जिसके पक्षमें धर्म और भगवान् होते हैं, उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता है। इसलिये संख्यामें कम होनेपर भी पाण्डवोंकी सेनाका तेज (प्रभाव) था और उसका दूसरोंपर बड़ा असर पड़ता था। अत: पाण्डव-सेनाका दुर्योधनपर भी बड़ा असर पड़ा, जिससे वह द्रोणाचार्यके पास जाकर नीतियुक्त गंभीर वचन बोलता है।
राजा दुर्योधन:—दुर्योधनको राजा कहनेका तात्पर्य है कि धृतराष्ट्रका सबसे अधिक अपनापन (मोह) दुर्योधनमें ही था। परम्पराकी दृष्टिसे भी युवराज दुर्योधन ही था। राज्यके सब कार्योंकी देखभाल दुर्योधन ही करता था। धृतराष्ट्र तो नाममात्रके राजा थे। युद्ध होनेमें भी मुख्य हेतु दुर्योधन ही था। इन सभी कारणोंसे संजयने दुर्योधनके लिये ‘राजा’ शब्दका प्रयोग किया है।
आचार्यमुपसङ्गम्य’—द्रोणाचार्यके पास जानेमें मुख्यत: तीन कारण मालूम देते हैं—
(१) अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये अर्थात् द्रोणाचार्यके भीतर पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा करके उनको अपने पक्षमें विशेषतासे करनेके लिये दुर्योधन द्रोणाचार्यके पास गया।
(२) व्यवहारमें गुरुके नाते आदर देनेके लिये भी द्रोणाचार्यके पास जाना उचित था।
(३) मुख्य व्यक्तिका सेनामें यथास्थान खड़े रहना बहुत आवश्यक होता है, अन्यथा व्यवस्था बिगड़ जाती है। इसलिये दुर्योधनका द्रोणाचार्यके पास खुद जाना उचित ही था।
यहाँ शंका हो सकती है कि दुर्योधनको तो पितामह भीष्मके पास जाना चाहिये था, जो कि सेनापति थे। पर दुर्योधन गुरु द्रोणाचार्यके पास ही क्यों गया? इसका समाधान यह है कि द्रोण और भीष्म—दोनों उभय-पक्षपाती थे अर्थात् वे कौरव और पाण्डव—दोनोंका ही पक्ष रखते थे। उन दोनोंमें भी द्रोणाचार्यको ज्यादा राजी करना था; क्योंकि द्रोणाचार्यके साथ दुर्योधनका गुरुके नाते तो स्नेह था, पर कुटुम्बके नाते स्नेह नहीं था; और अर्जुनपर द्रोणाचार्यकी विशेष कृपा थी। अत: उनको राजी करनेके लिये दुर्योधनका उनके पास जाना ही उचित था। व्यवहारमें भी यह देखा जाता है कि जिसके साथ स्नेह नहीं है, उससे अपना स्वार्थ सिद्ध करनेके लिये मनुष्य उसको ज्यादा आदर देकर राजी करता है।
दुर्योधनके मनमें यह विश्वास था कि भीष्मजी तो हमारे दादाजी ही हैं; अत: उनके पास न जाऊँ तो भी कोई बात नहीं है। न जानेसे अगर वे नाराज भी हो जायँगे तो मैं किसी तरहसे उनको राजी कर लूँगा। कारण कि पितामह भीष्मके साथ दुर्योधनका कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था ही, भीष्मका भी उसके साथ कौटुम्बिक सम्बन्ध और स्नेह था। इसलिये भीष्मजीने दुर्योधनको राजी करनेके लिये जोरसे शंख बजाया है (पहले अध्यायका बारहवाँ श्लोक)।
वचनमब्रवीत् ’—यहाँ ‘अब्रवीत् ’ कहना ही पर्याप्त था; क्योंकि ‘अब्रवीत् ’ क्रियाके अन्तर्गत ही ‘वचनम् ’ आ जाता है अर्थात् दुर्योधन बोलेगा, तो वचन ही बोलेगा। इसलिये यहाँ ‘वचनम् ’ शब्दकी आवश्यकता नहीं थी। फिर भी ‘वचनम् ’ शब्द देनेका तात्पर्य है कि दुर्योधन नीतियुक्त गम्भीर वचन बोलता है, जिससे द्रोणाचार्यके मनमें पाण्डवोंके प्रति द्वेष पैदा हो जाय और वे हमारे ही पक्षमें रहते हुए ठीक तरहसे युद्ध करें। जिससे हमारी विजय हो जाय, हमारा स्वार्थ सिद्ध हो जाय।
।।नित्य वन्दनीय पूज्य श्री स्वामी रामसुखदास जी के भाव।।
प्रेषक :-आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
श्रीधाम श्री अयोध्या जी