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“श्राद्ध तिथि” पर विशेष – मनुष्य को श्राद्ध के साथ अवश्य करना चाहिए अपने पित्रों का श्राद्ध

सनातन धर्म में आश्विन कृष्ण पक्ष पितरों के लिए विशेष रूप से पितृपक्ष के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता है कि इन दिनों सभी पितर गण बिना आवाहन किए ही पृथ्वीलोक पर विचरण करने के लिए आते हैं तथा अपने परिवार के लोगों के द्वारा अर्पित श्राद्ध तर्पण आदि से तृप्त होकर पुनः पितृलोक को चले जाते हैं इसीलिए प्रत्येक मनुष्य को श्रद्धा के साथ अपने पितरों का श्राद्ध अवश्य करना चाहिए। पितृपक्ष में किसका तर्पण करे किसका तर्पण न करें ? यह प्राय: असमंजस की स्थिति बनी रहती है, परंतु हमारे धर्म ग्रंथों में स्पष्ट बताया गया है कि प्रत्येक सनातन धर्मी को पूर्व की तीन पीढ़ी पिता पितामही प्रपितामही के साथ अपने नाना-नानी का श्राद्ध भी करना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने उपरेहित, गुरु, ससुर, ताऊ, चाचा, मामा, भाई, बहन, भतीजा, पुत्र, दामाद, भांजा, फूफा, मौसा, मौसी, पुत्र, मित्र, विमाता (सौतेली माता) के पिता एवं उनकी पत्नियों का भी श्राद्ध करने का निर्देश शास्त्रों में दिया गया क्योंकि यह सभी अपने कुल की लोगों की ओर आशा भरी दृष्टि से देखते रहते हैं। जिनके द्वारा उनका श्राद्ध नहीं किया जाता है उनके पितर असंतुष्ट होकर अनेक प्रकार के कष्ट प्रदान करते हैं। सबसे बड़ी समस्या यह होती है कि किसका श्राद्ध कब किया जाय ? इसके लिए हमारे शास्त्रों में स्पष्ट निर्देश है कि जिसकी मृत्यु जिस तिथि पर हुई हो उसका श्राद्ध उसी तिथि को करना चाहिए। तिथि का निर्धारण कैसे किया जाय ? क्योंकि कुछ लोग अंतिम संस्कार के दिन को पितृ तिथि तिथि के रुप में मान लेते परंतु ऐसा नहीं है। जिस दिन प्राणी अंतिम सांस लेकर इस पंचतात्विक शरीर का त्याग करता है उसी दिन उसकी तिथि माननी चाहिए। परंतु शास्त्रों के निर्देशों की जानकारी ना होने के कारण लोग उहापोह की स्थिति में रहते हैं जिसके कारण उनके द्वारा किया गया श्राद्ध तर्पण पितरों को प्राप्त नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप पितर संतुष्ट नहीं हो पाते।

आज आधुनिकता की चकाचौंध में अधिकतर लोग अपने परिजनों की मृत्यु की तारीख तो याद रऱते हैं परंतु तिथि उनको पता नहीं होती है ऐसे में लोग पितृपक्ष में भ्रमित हो जाते हैं कि हम श्राद्ध कब करें ? आज लोग अंधी दौड़ में इतना अधिक व्यस्त हैं कि उनको न तो अपने पितरों की तिथियाँ याद रहती हैं और न ही उनके पास अपने धर्मग्रन्थों का ही अध्ययन करने का समय रह गया है। यद्यपि श्राद्ध विशेष तिथि पर ही करना चाहिए परंतु सोलह दिन के पक्ष में कुछ विशेष तिथियाँ भी हेती हैं जिनको अपने पितरों की तिथि न याद हो उनको इनका लाभ लेना चाहिए। इस विषय में शास्त्रों का निर्देश है कि जिनकी मृत्यु स्वाभाविक हुई हो उनका श्राद्ध भाद्रपद पूर्णिमा को करना चाहिए। आश्विन कृष्ण प्रतिपदा को अपने नाना-नानी का श्राद्ध करना चाहिए। यदि परिवार में कोई अविवाहित बालक की मृत्यु हो गयी हो तो ऐसे कुंवारों का श्राद्ध “पंचमी” को होना चाहिए। कुल की जितनी सौभाग्यवती स्त्रियां हों उनका श्राद्ध नवमी (मातृ नवमी) को करके श्रद्धा अर्पित की जानी चाहिए। यदि कोई गर्भपात हो गया हो तो उसका श्राद्ध दशमी तिथि को होता है, वैष्णव सम्प्रदाय से पूर्वजों का श्राद्ध एकादशी को मान्य है परंतु एकादशी को अन्नदान वर्जित होने के कारण यह कृत्य द्वादशी को किया जाना चाहिए। यदि परिवार में मृत्यु के पूर्व किसी ने संयास धारण कर लिया हो तो उसका श्राद्ध भी द्वादशी को ही होना चाहिए। यदि परिवार में किसी की स्वाभाविक मृत्यु चतुर्दशी को हुई हो तो उनका श्राद्ध चतुर्दशी को न करके त्रयोदशी या फिर अमावस्या को करना चाहिए क्योंकि चतुर्दशी को उन्हीं का श्राद्ध किया जाता है जिनकी अपमृत्यु हुई हो। अपमृत्यु अर्थात किसी प्रकार की दुर्घटना, सर्पदंश, विष, शस्त्रप्रहार, हत्या, आत्महत्या, अग्नि में जलने, पानी में डूबने या अन्य किसी प्रकार से अस्वाभाविक मृत्यु चाहे जिस तिथि को हुई हो परंतु ऐसे लोगों का श्राद्ध चतुर्दशी को ही करने का विधान है। यदि उक्त तिथियों में श्राद्ध न कर पाये या तिथि की जानकारी न हो तो सबका श्राद्ध एक साथ अमावस्या को मान्य है इसीलिए इसको “सर्वपितृ अमावस्या” कहा जाता है। इस प्रकार विधि विधान से अपने पूर्वजों का श्राद्ध श्रद्धा पूर्वक प्रत्येक व्यक्ति को करना ही चाहिए।

कोई ऐसा विघान एवं परिहार नहीं है जो सनातन के धर्मग्रन्थों में न प्राप्त होता हो परंतु आधुनिकता की चकाचौंध में ग्रन्थ लुप्त होते जा रहे हैं और मनुष्य अनेक प्रकार के झंझावातों से घिरता चला जा रहा है।

आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
सरस् श्रीराम कथा व श्रीमद्भागवत कथा प्रवक्ता
श्री धाम श्री अयोध्या जी
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