सम्पादकीय

अंतर-राज्यीय शराब माफियाओं की रीढ़ पर आघात, सफल शराबबंदी का पहला सार्थक प्रयास

              एन के सिंह

लोक-प्रशासन का सर्वमान्य सिद्धांत है कि कोई कानून तभी बनाना चाहिए जब उसका अनुपालन शत प्रतिशत सुनिश्चित हो वरना उसका सरे-आम उल्लंघन शासन का इकबाल घटाता है. यह सिद्धांत तब ज्यादा जरूरी हो जाता है जब कानून का सीधा सम्बन्ध समाज में व्याप्त आदतों, पसंद और नैतिक मूल्यों से जुड़ा हो. शराबखोरी एक ऐसी हीं सामाजिक-व्यक्तिगत व्याधि है. भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाया जा सकता है अगर सिस्टम सख्त और कानून का शिकंजा मजबूत कर दिया जाये लेकिन शराबखोरी चूंकि लत भी होती है लिहाज़ा केवल कानून बना कर इससे निजात पाना असंभव होता है. इस व्याधि के बहु-आयामी कुप्रभाव होते हैं, खासकर गरीब राज्यों में, लिहाज़ा वर्तमान बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने राज्य में चार साल पहले शराबबंदी का एक साहसिक और सुधारात्मक फैसला लिया यह जानते हुए भी कि पैसे पैसे को मोहताज गरीब प्रदेश की जनता के कल्याण क लिए भारी आर्थिक इंजेक्शन की जरूरत है और इस फैसले से सरकार को राजस्व का जबरदस्त घाटा होगा. यह अलग बात है कि इसके अदृश्य लाभ जैसे अपराध पर अंकुश, समाज का सकारात्मक होना, शराब न मिलने से परिवार के प्रति घर के मुखिया या युवा का ज्यादा समर्पण होना हैं. समाजशास्त्री रोबर्ट पुटनम की बात माने तो शराब-विहीन समाज में सामाजिक पूँजी का जबरदस्त इजाफा होता है याने —परिवार में सुख-शांति की सामाजिक पूँजी मिलती है.

लेकिन इन चार सालों में बेरोजगारी, सरकारी भ्रष्टाचार और समाज में बढ़ती शराबखोरी के कारण पड़ोस के करीब आधा दर्जन राज्यों से तो छोडिये, राजस्थान, हरियाणा और पंजाब से शराब की धड़ल्ले तस्करी होने लगी. अंतर-राज्यीय शराब माफियाओं ने बिहार के गरीब, बेरोजगार और आपराधिकवृत्ति वाले युवाओं के एक बड़े तबके को “कैरिअर” के रूप में इस्तेमाल करना शुरू किया और उधर इन युवाओं को आसानी से रोजाना हजारों रुपये की आय होने लगी. इस गैर-कानूनी कमाई से अपराध के और रास्ते खुले. ये किशोर इस पैसे से देशी पिस्तौल खरीद कर अपराध करने लगे. हाल में बिहार में जितने भी शराब के मामले उजागर हुए इनसे इस ट्रेंड का पता चला. राज्य की सरकार के मुखिया के लिए यह सब “हवन करते हाथ जलने जैसा था”, अतः कुछ साफ़ छवि वाले नए अधिकारियों को बॉर्डर से लगे जिलों का चार्ज दिया गया इस उम्मीद के साथ कि शराब की तस्करी पर रोक लग सके. इन अधिकारियों ने पाया कि जब तक बाहर के माफियाओं पर हाथ नहीं डाला जाता, नए युवा इस धंधे में इस्तेमाल होते रहेंगें. लिहाज़ा सीमा से सटे गोपालगंज की पुलिस ने सप्लाई का स्रोत पता किया जो हरियाणा निकला जहां का एक माफिया करोड़ों रुपये की शराब हार माह बिहार भेजता था. इसे हरियाणा सरकार ने सुरक्षा के लिए दो पुलिस कांस्टेबल भी दे रखे थे. पानीपत के एसपी (जो बिहार के हीं मूल निवासी हैं) ने भी उसी उत्साह का परिचय दिया गोपालगंज के एसपी के साथ बातचीत के बाद. और तब दोनों की पुलिस टीमों ने एक ऑपरेशन के तहत अंतर-राज्यीय शराब माफिया अजीत सिंह को एसपी ऑफिस बुला लिया जहाँ से गोपालगंज की पुलिस इसे गिरफ्तार कर हवाई जहाज से पटना और फिर गोपालगंज ले गयी.

दरअसल अभी तक भ्रष्ट पुलिस सिस्टम या तो इस धंधे में पार्टनर होता था या सामान्य तौर पर कैरिअर्स (शराब की बोतलें सप्लाई करने वाले छोटे अपराधियोंको) को गिरफ्तार कर खाना पूर्ति करती रही थी. नये पुलिस अधिकारियों को लगा कि समस्या का अंत इससे नहीं होगा जब तक सप्लाई के मूल स्रोत पार हाथ नहीं डाला जाता. पकडे गए छुटभैय्यों के बयान से पता चला कि तार यूपी से भी आगे हरियाणा, राजस्थान और पंजाब से जुड़े हैं. लिहाज़ा ऑपरेशन को विस्तार दिया गया.

ऐसा माना जाता है कि आने वाले दिनों में आसपास के राज्यों के ऐसे कई माफिया पुलिस के निशाने पर होंगें. बिहार की महिलायें लगातार मांग कर रही थीं कि शराबबंदी के बाद स्थिति और खराब हो गयी और शराब की उपलब्धता महंगी होने से उनके घर का बजट भी बिगड़ता गया.
इस सफलता से शराब की सप्लाई तो रुक जायेगी लेकिन पूर्ण सफलता तभी मिलेगी जब सरकार और समाज के मकबूल लोग समाज में भी शराबखोरी के खिलाफ जन-चेतना की अलख जगाएं. दरोगा का डंडा स्थाई समाधान नहीं दे सकता. बहरहाल मुख्यमंत्री नितिश कुमार के एक बड़े और दीर्घकालिक प्रभाव वाले फैसला सफलता के एक नए पडाव पर जरूर पहुंचा है.

एन के सिंह
वरिष्ठ पत्रकार