रविवारीय मे पढ़िए इडलीवाला
हालांकि बात बहुत पुरानी तो नहीं है. पर नई भी नहीं कही जा सकती है। यह उस वक्त की बात है, जब हम कॉलेज में पढ़ रहे थे।

हम बातें कर रहे हैं लगभग तीस से पैतीस वर्ष पहले की और कह रहे हैं, बात बहुत पुरानी नहीं है। समय इतनी तेजी से आगे बढ़ गया कि पता ही नहीं चला। वक्त के साथ ही साथ पारिवारिक और सामाजिक दायित्वों के बीच जिंदगी झूलती हुई इतनी तेजी से आगे बढ़ी की पूछिए मत। आज थोड़ी विश्रामावस्था में आई है. तो चौबीस घंटे का मूल्य पता चल रहा है।
उस वक्त की जिंदगी की हम बात करें तो कह सकते है, बिंदास सी जिन्दगी थी अपनी। किसी बात की चिंता-फिक्र से कोसों दूर। दुनिया सिर्फ और सिर्फ अपने आसपास ही घूमा करती थी। मां और पिताजी दोनों ही नौकरी में थे। लाज़िमी था, अपने बड़े होने का फायदा और अभिभावकों की अनुपस्थिति ! क्या जिन्दगी रही होगी अपनी। दुनिया मेरी जेब में की तरह।
आप, बस अनुमान ही लगा सकते हैं। पर दिमाग पर आप अपने ज्यादा जोर कृपया बिल्कुल ना डालें। रश्क हो सकता है आपको मेरी किस्मत पर। वो जिन्दगी फिर से हम दोबारा जीना चाहेंगे अगर सर्वशक्तिमान कुछ ऐसा जुगत भिड़ा दें।
उन्हीं दिनों की बात है। सप्ताह में एक दिन, शायद गुरुवार का दिन हुआ करता था। एक इडलीवाला हमारे मुहल्ले में अपराह्न चार बजे के आसपास आता था और मुहल्ले में घूम-घुम कर इडली बेचा करता था। हम सभी इधर उधर से जुगत भिड़ा कर पैसे इकट्ठा कर रखते थे। उन पैसों से उससे इडली खरीदा करते थे। आप कह सकते हैं, हम सभी को उसके आने का इंतजार रहा करता था। पता नहीं, उसकी इडलियों में जादू था या फिर हम लोगों का मिज़ाज ही कुछ ऐसा था। यह सिलसिला चलता रहा। मोबाइल और सोशल मीडिया तब नहीं हुआ करता था। कुछ भी आभासी नहीं हुआ करता था। जो कुछ भी था बिल्कुल आमने-सामने। एकदम पारदर्शी। उस इडलीवाले के साथ एक अनौपचारिक सा संबंध बन गया था। किसी सप्ताह अगर नहीं आता, तो हम जानना चाहते थे कि आखिर आज क्यों नहीं आया वो। पर कैसे, मोबाइल तो उस वक्त था नहीं। उसके अगली मर्तबा आने पर हम उससे उसके ना आने की वजह जरूर पूछते । धीरे-धीरे कब हम दोस्त बन गए थे. पता ही नहीं चला। उस आने पर उसके साथ ढेर सारी बातें हुआ करती थीं। हम दोनों को है एक-दूसरे से बातें करना पसंद था। हालांकि, हम दोनों के बीच उम्र एक बड़ा मसला था। पर, वो हम दोनों के बीच से अपने आपको अलग ही रखा करता था।
एक बार की बात है। बातें ही बातों में उसने कहा- सर, कभी- बहुत चिंतित हो जाता हूं। चिंता के कारण रातों में नींद नहीं आती है। मैंने पूछा,आखिर ऐसी क्या बात है। इतना चिंतित क्यों रहते हो। थोड़ा झिझकते हुए, संकोच के साथ उसने कहा, क्या बताएं सर, इडली बेचने से इतनी आमदनी नहीं है कि घर को सुचारू रूप से चला सकूं। कभी इडली नहीं बेच पाया या किसी और अन्य कारणों से अगर बिक्री बाधित हो गई या कभी बिमारी की वज़ह से अगर इडली नहीं बेच पाया तो कैसे चलेगा। बीमारी में भी बीमारी से ज्यादा यह चिंता सताती है कि इस महीने घर रुपए कैसे भेज पाऊंगा। कैसे कल के लिए दो रूपए बच पाऊंगा। घर में दो-दो बेटियां हैं। उनकी परवरिश और शादी की चिंता हर वक्त सताती रहती है।
समाज में उस वक्त दहेज का दानव बहुत विकराल रूप धारण किया हुआ था। आज भले ही उसकी विकरालता समाज में हो रहे बदलाव और जागरूकता की वजह से थोड़ी कम हुई है, पर किसी न किसी समाज में किसी अन्य रूप में आज भी कायम है इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है।
खैर! आते ही जो उसने कहा वो हम सभी को व्यथित और स्तब्ध करने के लिए पर्याप्त था। उसने कहा सर, रातों को नींद नहीं आती है। हर वक्त घर-परिवार की चिंता सताए रहती है। जब नींद नहीं आने की वजह से परेशान है जाता हूं और लगता है अब दर्द से सिर फट सा जाएगा, तो आंखों में अमृतांजन मल कर सो जाता हूं। आपको शायद पता होगा नहीं, तो मैं बता दूं कि अमृतांजन सिर दर्द आदि में राहत प्रदान करने वाला एक बाम हुआ करता था। शायद दक्षिण भारत के किसी शहर से उसका ताल्लुक था। उस वक्त अमूमन हर घर में उसकी पहुंच थी। आप उस इडली वाले की व्यथा को बस थोड़ा सोचकर देखें। मैं गारंटी के साथ कह सकता हूं कि कोई में संवेदनशील व्यक्ति विचलित हो सकता है। सामाजिक कुरीतियां किस प्रकार आपके जीवन पर अपना असर दिखाती हैं, बस सोचने की बात है।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’