सम्पूर्ण रामराज्य पर एक लघु विमर्श
रामराज्य की बात तो सभी करते है, लेकिन रामराज्य है क्या और ये कैसे स्थापित होगा, ये कोई नही बताता। मोटा मोटी समझने का प्रयास करे तो, वनवास से लौट कर भगवान राम का अयोध्या नरेश के पद पर राज्याभिषेक हुआ और उनके राज में उनकी प्रजा की जो स्तिथि थी उसे ही रामराज्य कहा जाएगा। लेकिन उस वक्त प्रजा की क्या स्तिथि रही होगी, प्रजा को कितना सुख था कितना दुख था ये कैसे पता चलेगा? क्योकि, जैसा मैंने शुरू में कहा, रामराज्य की बात तो सभी करते है लेकिन वो कैसा होगा वो कोई नही बताता।
और इसीलिए, देश मे तो रामराज्य कब आएगा, कब नही आएगा ये कहना तो ज़रा मुश्किल है। लेकिन हम चाहे तो अपने भीतर (हॄदय में) रामजी को स्थापित कर रामराज्य की स्थापना कर सकते है, जिससे हमारे जीवन के समस्त शोक का नाश हो जाए और हम एक आनंददायक जीवन जिए। लेकिन ये होगा कैसे? हमारे हृदय में रामजी कैसे विराजेंगे?
अपने हृदय में रामजी स्थापित करने की चार सीढ़िया है जिनपर चढ़कर हम अपने हृदय में रामजी को स्थापित कर सकते है। जिसकी प्रथम सीढ़ी है
भाग – एक
-शत्रुघ्न।
शत्रुघ्न : रामायण के सबसे अंडररेटेड किरदार। कोई इनके बारे में ज्यादा नही जानता। नाम शत्रुघ्न है, अर्थात शत्रुओं का संहार करने वाला, “जाके सुमिरन ते रिपु नासा, नाम शत्रुघ्न वेद प्रकासा”। लेकिन पूरी रामायण में शत्रुघ्न जी कहीँ भी लड़ते भिड़ते नज़र नही आते। उत्तर रामायण में केवल एक जगह, मथुरा के राजा लवणासुर से उन्होंने युद्ध किया था और विजयी हुए थे, और उसके बाद मथुरा के राजा भी बने। इसके अतिरिक्त अन्य कहीं भी उनके युद्ध का वर्णन नही है, क्योकि वे बाहर के नही, भीतर के शत्रुओं का संहार करते है।
अब इसे ऐसे समझिए कि हमारा शरीर एक भवन है, और आत्मा यानी हम है प्रजा। और उस भवन में हमे रामजी को आमंत्रित करना है। लेकिन रामजी आएंगे कैसे? हमारे भवन पे तो ‘काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह, ईर्ष्या, मात्सर्य, छल, कपट, जैसे शत्रुओं का कब्जा है, और इन्ही शत्रुओं का संहार करने के लिए हमे रामजी से पहले शत्रुघ्न जी को हृदयंगम करना पड़ेगा। शत्रुघ्न जी आएंगे और हमारे शरीर के भीतर के शत्रुओं का संहार कर भवन को खाली करेंगे ताकि रामजी आ सके।
लेकिन अब प्रश्न ये है की शत्रुघ्न जी कैसे आएँगे? और आएंगे तो शत्रुओं का संहार कैसे करेंगे? इसके लिए हमे शत्रुघ्न जी की शक्ति का आव्हान करना पड़ेगा और उनकी शक्ति का नाम है- “श्रुतकीर्ति”। शत्रुघ्न जी की धर्मपत्नी का नाम है श्रुतकीर्ति। पत्नी जी को बुला लो, पति महोदय झक मार के पीछे पीछे आएंगे। श्रुतकीर्ति का मतलब होता है – “भगवान की कीर्ति का कानों से श्रवण करना”। अर्थात भगवान की कथा सुनना और उसको गुनना। अपने कानों से भगवान की कथा सुनते जाओ, यथासंभव अपने दैनिक जीवन मे, अपने चरित्र में अमल करते जाओ, अंदर शत्रुघ्न जी हमारे शत्रुओं का संहार करते जाएंगे। शरीर रूपी भवन हो गया खाली, अब बुलाओ रामजी को। लेकिन रामजी अब भी नही आएँगे।
भाग – दो
आपके हृदय भवन में रामराज्य स्थापना की दूसरी सीढ़ी है, शेषनाग अवतारी लक्ष्मण
लक्ष्मण अर्थात – जिसके जीवन का केवल एक ही लक्ष्य हो वह लक्ष्मण। और लक्ष्मण जी के जीवन के एकमात्र लक्ष्य था केवल और केवल प्रभु श्रीराम जी की सेवा और समर्पण। जो न मेरे राम का, सो न मेरे काम का। माता, पिता, गुरु किसी से कोई मतलब नही।
“माता रामो मत्पिता रामचंद्र,
स्वामी रामो मत्सखा रामचन्द्र,
सर्वस्वं में रामचन्द्रो दयालु,
नान्यं जाने नैव जाने न जाने”
रामजी ही मेरी माता है, रामजी ही मेरे पिता है, रामजी ही मेरे स्वामी है, रामजी ही मेरे सखा है। रामजी के अतिरिक्त मैं और किसी को नही जानता।
मोरें सबइ एक तुम्ह स्वामी।
दीनबंधु उर अंतरजामी॥
गुर पितु मातु न जानउँ काहू।
कहउँ सुभाउ नाथ पतिआहू॥
लक्ष्मण जी का भाव बस इतना ही है कि आप रामजी के प्रिय है तो चाहे वानर भालू ही क्यो न हो आप मेरे भी प्रिय हो जाते हो। और अगर आप रामजी के विरोध में है तो फिर चाहे आप भगवान परशुराम ही क्यो न हो, मैं आप के खिलाफ शस्त्र उठाने में जरा भी संकोच नही करूँगा।
अपने प्रभु के प्रति सेवा और समर्पण का ऐसा भाव जब हमारे भीतर आ जाएगा, तब हम भी लक्ष्मण हो जाएंगे और हमारी यही अवस्था रामराज्य प्राप्ति की दूसरी सीढ़ी है।
लेकिन अब प्रश्न ये है कि हमे कैसे पता चलेगा कि हम लक्ष्मण की अवस्था को प्राप्त कर चुके है यानी हमारे जीवन लक्ष्य श्रीराम जी पर ही केंद्रित हो गया है। तो लक्ष्मण जी जब भी आएंगे अपनी शक्ति के साथ आएंगे, और लक्ष्मण जी की शक्ति है – “उर्मिला”। उर्मिला का अर्थ है – उर + मिला, अर्थात “उर (हॄदय) में भगवान से मिलने की तीव्र उत्कंठा उत्पन्न हो जाए”, जब हमारा मन मष्तिष्क आठों पहर यही चिंतन करे कि “भगवान हमसे कब मिलेंगे, कहाँ मिलेंगे, कैसे मिलेंगे” तो समझो उर्मिला जी आपके हृदयरूपी भवन में आ चुकी है, और जब पत्नी जी आ जाए तो पतिदेव भी पीछे पीछे आ ही जाते है, अर्थात आपका लक्ष्य एकाग्र हो चुका है।
जब आपकी भी अवस्था ऐसी ही हो जाए तो समझिए आपने अपने हृदय भवन में रामराज्य स्थापना की दूसरी सीढ़ी सफलतापूर्वक पार कर ली है, और रामजी ने आपका आमंत्रण स्वीकार कर आपके भवन की ओर दूसरा कदम उठा दिया है।
भाग – तीन
भरत
अपने हृदयरूपी भवन में रामराज्य स्थापना के क्रम में पहले दो सोपानों में हमने जाना कि रामजी से पहले हमें सबसे पहले शत्रुघ्न-श्रुतकीर्ति के जोड़े को तत्पश्चात लक्ष्मण-उर्मिला के जोड़े को स्थापित करना पड़ेगा। इससे आपका हॄदय भवन आपके भीतरी शत्रुओं से रिक्त हो जाएगा और आपका लक्ष्य भी एकाग्र हो जाएगा। अब बढ़िए तीसरे सोपान पर। और आपके हॄदयभवन में रामराज्य स्थापना का तीसरा सोपान है – धर्मस्वरूप, महाराज भरत। समुद्र की भांति धीर गम्भीर और मर्यादा से बंधे रहने वाले महाराज भरत वास्तव में क्षीरसागर के ही अवतार है।
भरत अर्थात- भरने वाले।
“विश्व भरण पोषन कर जोई
ताकर नाम भरत अस होई।।”
जो सम्पूर्ण ब्रह्मांड का भरण पोषण करे वही भरत है।
महात्मा भरत जी तो स्वयं धर्म के धुरी हैं गुण समूह हैं किंतु सभी गुणों में एक विशेषतम गुण अतिप्रिय है वो- राम जी से निश्छल पावन प्रेम। प्रभु श्री राम के साक्षात प्रेम विग्रह महात्मा भरत जी
श्रीतुलसीदास जी कहते हैं
छं. सिय राम प्रेम पियूष पूरन होत जनमु न भरत को।
मुनि मन अगम जम नियम सम दम बिषम ब्रत आचरत को।।
दुःख दाह दारिद दंभ दूषन सुजस मिस अपहरत को।
कलिकाल तुलसी से सठन्हि हठि राम सनमुख करत को।।
अर्थात:- श्री सीताराम प्रेमामृत परिपूर्ण महात्मा भरत जी का यदि जन्म न होता तो मुनियों के मन को भाने वाला अगम, यम,नियम,शम, दम आदि कठिन व्रतों का आचरण कर के कौन बताता? (कोई नही) अपने सुयस से दुःख, संताप(जलन), दारिद्र्य, दम्भ और दूषण को कौन हरता?(कोई नहीं) और गोस्वामी बाबा कहते हैं कि इस कलिकाल में तुलसी ऐसे शठों को कौन हठ पूर्वक श्री राम जीके सम्मुख करता सिवाय महात्मा भरत जी के।तो भरत जी जिस चीज से हमारा भरण पोषण करते है, वो है- “रामरस”। भरत जी को हॄदय में स्थापित करो, वे आपके हृदय को रामरस से लबालब भर देंगे। हमारा हॄदय जो अभी “विषयरस” से भरा हुआ है, भरत जी आते ही इसे विषयरस से खाली कर इसे रामरस से भर देंगे। बाबा तुलसीदास जी कहते है :
भरत चरित कर नेम,
तुलसी जो सादर सुनहि।
सीय राम पद प्रेम,
अवसि होई भव रस विरति I
अर्थात, भरत चरित्र का नियमित रूप से श्रवण करेंगे तो हॄदय अवश्य ही सीताराम जी के प्रेम से भर जाएगा, और भव रस से विरक्त हो जाएगा। तो हॄदय से भवरस की विरक्ति और राम रस से तृप्ति ये दोनों ही काम भरत जी करेंगे।
अब हमें कैसे पता चले कि हमारा हॄदय सचमुच में रामरस से भर चुका है अथवा नही। पहचान यही है कि भरत जी जब भी आएंगे, अपनी शक्ति के साथ आएंगे, और भरत जी की शक्ति का नाम है – “माण्डवी”। माण्डवी अर्थात, “समस्त ब्रह्माण्ड के चराचर जीवों के प्रति माँ जैसी ममता रखना”। जब हमारे हॄदय में इस ब्रम्हाण्ड में जितने भी चराचर जीव जंतु है उन सबके लिए वैसा ही प्यार, दुलार, दया, धर्म हो जैसा एक माँ की अपने बच्चे के प्रति होती है, तो समझ लीजिए महाराज भरत अपनी शक्ति माण्डवी के साथ आपके हृदय रूपी भवन में स्थापित हो चुके है। और इस अवस्था की पहचान एक ही है :
“सीया राम मय सब जग जानी,
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी”
सारे जगत के जीवों में उसी तत्व का दर्शन हो जिसकी प्राप्ति के आप आकांक्षी हो तो समझिए आपका हॄदय रामरस से भर चुका है, और इसी के साथ तीसरा सोपान पूर्ण होता है।
भाग-चार
अब अपने हृदय भवन में आमंत्रित करिए रामजी को
जब आपके हॄदयभवन में शत्रुघ्न, लक्ष्मण और भरत जी अपनी अपनी शक्तियों के संग आकर निवास करने लग जाएंगे तो अवश्य ही श्री राम भी अपनी शक्ति संग आपके हृदय में आकर निवास करने लगेंगे।
राम शब्द का अर्थ होता है- * रमन्ते सर्व जीवानां रामः जो सभी जीव मात्र में रमण करता है वह राम है, अर्थात “. जब आप अपने हृदय में रामराज्य स्थापित करने के प्रथम तीन सोपान पार कर लेंगे तो अवश्य ही प्रभु श्री सीताराम आपके हृदय में रमण करने लग जाएंगे। फिर आपका ह्रदय छार सागर से छीर सागर बन जायेगा।
रामजी कौन हैं?
जो आनन्द सिंधु सुख रासी।
सीकर ते त्रयलोके सुपासी।
सो सुखधाम राम अस नामा,
अखिल लोक दायक विश्रामा
अर्थात:- जो आनंद का सागर है सुख का अनन्त खजाना है। जिसके एक बिंदु मात्र आनंद जल से सम्पूर्ण त्रयलोक आनंद मग्न हो जाता है! वही सुख के धाम जो समस्त लोकालोक को विश्राम देते हैं उन्हीं का नाम श्री राम है। अस्तु इनके चरण शरण के बिना कोई भी जीव विश्रांति का अनुभव नहीं कर सकता। एक मात्र इनका नाम ही विश्राम दायक है। अस्तु जब राम जी मंगल भवन ही आपके भीतरअपनी शक्ति जगत जननी पराम्बा श्री किसोरी जी के साथ विराजमान होंगे वही वास्तविक परमानन्द सुख है।
वही सम्पूर्ण राम राज्य है, वही परम् विश्राम है।
सुन्दर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीत जो। सो एक राम आकाम हित निर्बान प्रद सम आन को। जाकी कृपा लव लेस ते मतिमन्द तुलसी दास हूँ।
पायो परम् विश्राम राम समान प्रभु नाही कहूँ।।
बोलिए श्री सीताराम जी की जय।।
बोलिए श्री अयोध्या धाम की जय।।
आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
सरस श्री रामकथा व श्रीमद्भागवत व्यास श्री धाम श्री अयोध्या जी
संपर्क सूत्र:-9044741252