विविधसम्पादकीय

लघुकथा जीव-जगत की जटिलताओं को अत्यंत सहज और प्रभावी ढंग से सुलझाने का करती है प्रयास

    डॉo सत्यवान सौरभ

( लघुकथा जीव-जगत की जटिलताओं को अत्यंत सहज और प्रभावी ढंग से सुलझाने का प्रयास करती है। वर्ष 2020 का 11000/- रुपये का ‘डॉ मनुमुक्त ‘मानव’ अंतरराष्ट्रीय लघुकथा-पुरस्कार’ बेल ऐर (मॉरीशस) के विश्वविख्यात कथाकार रामदेव धुरंधर को प्रदान किया गया।  मनुमुक्त ‘मानव’ के ‘अंतरराष्ट्रीय लघुकथा-सम्मेलन’ में सरुभक्त श्रेष्ठ कहते है कि लघुकथा कथा-परिवार की ही एक नई विधा है, जो अलग-अलग नामों और रूपों में पूरे विश्व में लिखी और पढ़ी जा रही है। इस अंतरराष्ट्रीय लघुकथा-सम्मेलन’ में जुटे चौदह देशों के लघुकथाकार जुड़े. सरुभक्त श्रेष्ठ ने इस दौरान बताया कि पूरे विश्व में लिखी और पढ़ी जा रही है लघुकथा. )

कहानी हर युग में है सर्वाधिक लोकप्रिय

बच्चा सबसे पहले मां से लोरी सुनता है और फिर दादी-नानी से कहानी। इसलिए कविता के बाद कहानी हर युग में सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यिक विधा रही है। यह कहना है नेपाल संगीत एवं नाटक अकादमी, पोखरा के पूर्व अध्यक्ष तथा साठ  पुस्तकों के लेखक सरुभक्त श्रेष्ठ का। मनुमुक्त ‘मानव’ मेमोरियल ट्रस्ट के  ‘अंतरराष्ट्रीय लघुकथा-सम्मेलन’ में उन्होंने कहा कि लघुकथा कथा-परिवार की ही एक नई विधा है, जो अलग-अलग नामों और रूपों में पूरे विश्व में लिखी और पढ़ी जा रही है।

गुजरात सिंधी अकादमी, अहमदाबाद के पूर्व अध्यक्ष तथा दो सौ से अधिक पुस्तकों के लेखक डॉ हूंदराज बलवाणी ने लघुकथा को जीवन से जुड़ी एक जीवंत विधा बताया, तो नेपाल सरकार के मुखपत्र दैनिक ‘गोरखा-पत्र’ के प्रधान संपादक तथा ‘नेपाली लघुकथा-समाज’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम श्रेष्ठ ‘रोदन’ ने स्पष्ट किया कि लघुकथा आकार में भले ही छोटी हो, लेकिन इसका प्रभाव बहुत गहरा होता है। सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज) के कुलपति डॉ उमाशंकर यादव ने  लघुकथा को एक स्वतंत्र विधा बताते हुए स्पष्ट किया कि लघुकथा को कहानी का संक्षिप्त रूप बताना अनुचित है।

विश्व-साहित्य में लघुकथा का अस्तित्व है शताब्दियों से 
डॉ. मनोज मोक्षेन्द्र के अनुसार लघुकथा साहित्य की ऐसी विधा है जिसके बारे में देश-विदेश के किसी भी विद्वान ने कोई मानदंड निर्धारित नहीं किया है तथापि सामान्य तौर पर कथा-कहानी के साथ-साथ लघुकथा लिखने की परंपरा प्रत्येक देश और भाषा में रही है। यहाँ तक कि अमरीका के हेनरी जेम्स ने भी ‘दि आर्ट ऑफ़ फिक्शन’ में लघुकथा के स्वरूप, इसकी भाषा-शैली, अन्तर्वस्तु आदि के संबंध में कोई निर्धारण नहीं किया है जबकि विश्व-साहित्य में लघुकथा का अस्तित्व शताब्दियों से है। लघु दन्त्यकथाओं के रूप में इसकी मौज़ूदगी से सभी अवगत हैं। अस्तु, हिंदी के आचार्यों ने भी इस विधा के उस स्वरूप की चर्चा कभी नहीं की जो आज लघुकथा के रूप में हमारे सामने है।

लघुकथा में नवप्रयोगों की संभावना ‘शून्य’ से थोड़ा-सा ही बढ़कर है क्योंकि यह लेखक को उतनी बड़ी जमीन नहीं देती जिस पर वह ढेर-सारे प्रयोग कर सके और विभिन्न प्रकार की विचारधाराओं, सिद्धांतों और दार्शनिक मतों की फसल लहलहा सके। इसका प्रमुख कारण आकार-प्रकार में इसकी लघुता का होना है। यदि इसके शिल्प-विधान में कोई परिवर्तन या विकास किया जाता है तो इसके स्वरूप में बदलाव आने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है और इस कारण लघुकथा अपने अनुशासन-बंधन से मुक्त होकर बृहताकार हो जाएगी।

लघुकथा में टी-20 जैसा ही होता है रोमांच 

चीफट्रस्टी तथा वरिष्ठ लघुकथाकार डॉ रामनिवास ‘मानव’ ने कथा को क्रिकेट के समक्ष रखते हुए स्पष्ट किया कि उपन्यास की तुलना टैस्ट मैच से, कहानी की तुलना वनडे मैच से  और लघुकथा की तुलना  टी-20 मैच से की जा सकती है। लघुकथा में टी-20 जैसा ही रोमांच होता है। इस लघुकथा-सम्मेलन में भारत, नेपाल, जापान, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, मलेशिया, यूएई, ओमान, नॉर्वे, ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा और मॉरीशस सहित चौदह देशों के लघुकथाकारों ने सहभागिता की।

 लगभग साढ़े तीन घंटों तक चले इस ऐतिहासिक लघुकथा-सम्मेलन में टोक्यो (जापान) की रमा शर्मा ने ‘आंखों देखा झूठ’, मेलबर्न (ऑस्ट्रेलिया) की डॉ उर्मिला मिश्रा ने ‘तिनका’ और मंजुला ठाकुर ने ‘स्नेह-वर्षा’, ऑकलैंड (न्यूजीलैंड) के रोहितकुमार ‘हैप्पी’ ने ‘दूसरा रुख’, काठमांडू (नेपाल) के सरुभक्त श्रेष्ठ ने ‘दशहरा’, ओम श्रेष्ठ ‘रोदन’ ने ‘निरुत्तर’, डॉ पुष्करराज भट्ट ने ‘लावारिस’ और भागीरथी श्रेष्ठ ने ‘विवाद’, ओस्लो (नॉर्वे) के डॉ सुरेशचंद्र शुक्ल ने ‘विदेशी माल’, लंदन (ब्रिटेन) के आशीष मिश्रा ने ‘ठिकाना’, दुबई (यूएई) की स्नेहा देव ने ‘पीला कप’, निजवा (ओमान) के डॉ अशोककुमार तिवारी ने ‘मोर्चाबंदी’, वैंकूवर (कनाडा) की प्राची रंधावा ने ‘लता की चाय’ लघुकथा से पाठकों को शिक्षा प्रदान की.

ओहियो (अमरीका) के डॉ दीपक मशाल ने ‘किसी बहाने’ और पिट्सबर्ग के अनुराग शर्मा ने ‘अहिंसा’, क्वालालंपुर (मलेशिया) के राजू छेत्री ‘अपुरो’ ने ‘शंका’ और भारत से पटियाला (पंजाब) के योगराज प्रभाकर ने ‘जंबूद्वीपे, भारतखंडे’, संगरिया (राजस्थान) के गोविंद शर्मा ने ‘खंडहर’, नई दिल्ली के राकेश भ्रमर ने ‘मुआवजा’, पीलीभीत (उप्र) की डॉ संध्या तिवारी ने ‘हाई ब्रीड’ फतुहा (बिहार) के रामयतन यादव ने ‘चोरी’

इंदौर (मप्र) के डॉ योगेंद्रनाथ शुक्ल ने ‘बोली’, अंतरा करवड़े ने ‘उद्गम’ और‌ डॉ वसुधा गाडगिल ने ‘बारबेक्यू’, ग्वालियर की डॉ रश्मि चौधरी ने ‘पीपल का पेड़’ और‌ भोपाल की डॉ लता अग्रवाल ने ‘ममता’ तथा नारनौल (हरि) के‌ डॉ ‌पंकज गौड़ ने ‘प्रेरणा’, डॉ जितेंद्र भारद्वाज ने ‘ऊपर वाले की लाठी’, डॉ सत्यवीर ‘मानव’ में ‘शगुन’ और डॉ रामनिवास ‘मानव’ ने ‘सांप’  लघुकथा का पाठ किया।

लघुकथा-इतिहास के अपने ढंग के इस प्रथम और अनूठे समारोह में वाशिंगटन डीसी (अमरीका) से विश्वबैंक की अर्थशास्त्री ‌डॉ एस अनुकृति और सलाहकार प्रो‌ सिद्धार्थ रामलिंगम, न्यूजर्सी की वरिष्ठ साहित्यकार देवी नागरानी, मुंबई (महाराष्ट्र) से सहायक आयकर आयुक्त सुरेश कटारिया, आईआरएस, करनाल (हरि) से हरियाणा साहित्य अकादमी के पूर्व निदेशक डॉ पूर्णमल गौड़, ‌पटियाला (पंजाब) के प्रख्यात कवि तथा आईबी के पूर्व सहायक निदेशक नरेश नाज़  ने भी भाग लिया.

लखनऊ (उप्र) के साप्ताहिक ‘विश्व-विधायक’ के संपादक मृत्युंजय प्रसाद गुप्ता के अतिरिक्त टीकमगढ़ (मप्र) से रामस्वरूप दीक्षित, बरेटा (हिप्र) से रमेश‌ मस्ताना, नवीं मुंबई (महाराष्ट्र) से डॉ मंजू गुप्ता, तलश्शेरी (केरल)‌ से डॉ पीए रघुराम, अलीगढ़ (उप्र) से डॉ संतोषकुमार शर्मा, नई दिल्ली से अर्जुनदेव शर्मा तथा हरियाणा में हिसार से डॉ राजेश शर्मा, नारनौंद से बलजीत सिंह, सिवानी मंडी से डॉ सत्यवान सौरभ, नारनौल से ट्रस्टी डॉ कांता भारती, गरिमा गौड़, कृष्णकुमार शर्मा, एडवोकेट, नेमीचंद शांडिल्य, धार्मिक परमार, धूपेंद्र सिंह, सौम्या खरबंदा, सुनीता सेन  की उपस्थिति लघुकथा के आँगन को उत्साह से भरती नज़र आई।

लघुकथा की बढ़ती जाएगी प्रासंगिकता अपने-आप
आज लघुकथा अपनी सूक्ष्मता, लघुता, संक्षिप्तता और सांकेतिकता के मद्दे-नज़र समय की एक ख़ास ज़रूरत है। जीवन के इस अनौपचारिक दौर में संक्षेप में सारगर्भित बात करके कथाकार की अपनी ज़िम्मेदारी से छुट्टी लेने की अपरिहार्यता ने कथा-कहानी को लघुकथा में समेट दिया है। चुनांचे, लघुकथा इस जटिल संसार और जीवन का एक ठोस रूपक है। प्रतीकात्मक कथ्य के माध्यम से यह जीव-जगत की जटिलताओं को अत्यंत सहज और प्रभावी ढंग से सुलझाने का प्रयास करती है। इसलिए इसकी प्रासंगिकता दिन-प्रति दिन अपने-आप बढ़ती जाएगी और बड़ी संख्या में इससे पाठक जुड़ते भी जाएंगे।
— डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार,
आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट
(आलेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी और मौलिक हैं)