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PM वन धन योजना से आदिवासी युवक बना उद्यमी, बड़ी कंपनियों से मिला 1.57 करोड़ रुपए के गिलोय का ऑर्डर

कोरोना काल में आदिवासी समूह और जनजातियों को भी काफी मुश्किल का सामना करना पड़ा है। लेकिन पिछले साल ऐसे लोगों की मदद के लिए जनजाति मंत्रालय ने कई योजनाओं की शुरुआत की। जिसके जरिए आदिवासी समाज के द्वारा तैयार किए जाने वाले उत्पादों को सीधे बाजार में और ग्राहक तक पहुंचाया जा सके। वहीं इस बार सरकारी संगठनों से सहायता प्राप्त एक युवाओं के एक समूह के प्रयास से, उन्हें औषधीय गुण वाले पौधे गिलोय की आपूर्ति के लिए 1.57 करोड़ रुपए का ऑर्डर मिला। जिन औषधि निर्माताओं से इन्हें आर्डर प्राप्त हुए हैं उनमें डाबर, वैद्यनाथ और हिमालय जैसी बड़ी कंपनियां भी शामिल है।

दरअसल, महाराष्ट्र के ठाणे जिले के के शाहपुर स्थित आदिवासी एकात्मिक सामाजिक संस्था युवाओं का एक ऐसा संगठन है, जो क्षेत्र के जनजातीय समुदाय की समस्याओं को दूर करने के लिए निरंतर प्रयासरत रहता है। वहीं, जिस औषधीय पौधे गिलोय के लिए इन युवाओं को ऑर्डर प्राप्त हुए हैं, उसे आयुर्वेद में गुडूची कहा जाता है और इसका उपयोग कोविड काल में काफी बढ़ गया है, खास तौर पर वायरल बुखार और मलेरिया तथा शुगर जैसी बीमारियों के उपचार में भी औषधि के रूप में किया जाता है। इसका उपयोग पाउडर, सत अथवा क्रीम के रूप में भी किया जाता है।

ट्राइफेड के द्वारा सपनों को मिले पंख

कातकरी समुदाय के 27 वर्षीय युवा सुनील सुनील अब एक सफल उद्यमी बन चुके हैं। उनके नेतृत्व में शुरू हुए एकात्मिक सामाजिक संस्था में 10-12 युवक हैं। इन युवाओं ने साथ मिलकर अपने मूल निवास के राजस्व कार्यालय में कातकरी जनजातीय समुदाय के लोगों की मदद करने की शुरुआत की।

जनजातीय कार्य मंत्रालय के अंतर्गत कार्य करने वाली संस्था ट्राइफेड द्वारा मिले सहयोग ने सुनील को अपना दायरा और बड़े स्तर पर करने में मदद की। वह इस समय 1800 से अधिक लोगों से गिलोय प्राप्त करते हैं और शाहपुर में उन्होंने कुल पास 6 केंद्र खोले हैं। ट्राइफेड द्वारा सहायता के रूप में क्षेत्र के सभी 6 वन धन केन्द्रों को 5 लाख रुपये मिले, लेकिन जब सुनील को बड़ी कंपनियों का ऑर्डर पूरा करने के लिए और अधिक पूंजी की आवश्यकता पड़ी, तो ट्राइफेड ने 25 लाख रुपये की अतिरिक्त सहायता प्रदान की।

कोविड के बीच 1.5 करोड़ रुपये का ऑर्डर पर हो रहा है काम

सुनिल बताते हैं कि सभी केंद्रों पर प्रसंस्करण का काम पूरे जोर-शोर से चल रहा है। यह देखना बहुत सुखद अनुभव है कि किसी जनजातीय समूह के 1800 लोग इस कोविड महामारी के चलते लॉकडाउन के बीच भी अपनी आजीविका कमा रहे हैं। हमारे पास इस समय लगभग 1.5 करोड़ रुपये का ऑर्डर है और जल्द ही डाबर से और भी बड़ा ऑर्डर मिलने की संभावना है।

सुनील ने आगे कहा कि “कंपनियों को कच्चे माल की जरूरत होती है और वे कच्चा माल बड़े स्तर पर खरीदना चाहती हैं, ताकि सस्ता पड़े। इन कंपनियों को कहीं और की तुलना में हमसे सस्ते में कच्चा माल मिल जाता है। हालांकि अब हमने भी इसका पाउडर बनाना शुरू कर दिया है और इसे 500 रुपये प्रति किलो की दर से बेचते हैं।

आने वाले समय के लिए गिलोय की 5,000 नर्सरी तैयार

जंगलों से गिलोय इकठ्ठा करते समय सुनील और उनके साथी यह सुनिश्चित करते हैं कि भविष्य की जरूरत पूरी करने के लिए गिलोय के पौधों का अस्तित्व बना रहे। इसके अलावा, उनके पास गिलोय की 5,000 नर्सरी तैयार है जिसकी रोपाई करनी है। उनकी योजना आने वाले दिनों में 2 लाख पौधे लगाने की है।

प्रधानमंत्री वन धन योजना से स्वयं सहायता समूहों को मिल रही मदद

महाराष्ट्र सरकार के अंतर्गत कार्यरत एक अन्य संगठन शबरी आदिवासी वित्त महामंडल के प्रबंध निदेशक नितिन पाटिल ने बताया कि “जल्द ही हम 5 वन धन केंद्रों का एक क्लस्टर बनाएंगे, ताकि मांग पूरी हो सके। 40 और केन्द्रों को पहले से ही स्वीकृत मिल चुकी है। जब यह काम करना शुरू कर देंगे, तब कातकरी समुदाय को 12,000 लोगों के लिए रोजगार उपलब्ध होगा। प्रत्येक वन धन केंद्र 300 लोगों को मदद करता है।

पाटिल ने कहा कि प्रधानमंत्री वन धन योजना ने इन स्वयं सहायता समूहों को धन उपलब्ध कराया। इससे आदिवासियों को अपने उत्पादों को बेचने के लिए किसी प्रकार के तनाव लेने की आवश्यकता नहीं होती है। यहां तक कि आदिवासियों को सामान खरीदे जाने के समय ही भुगतान कर दिया जाता है, जो निरंतर आय के रूप में जनजातीय लोगों के लिए बड़ी सहायता है।

पलायन रोकने के लिए अन्य पहल

नितिन पाटील ने बताया कि आदिवासी समूहों के लिए पूरे साल का रोजगार सुनिश्चित करने के क्रम में गिलोय के अलावा अन्य कार्यों के संबंध में भी योजना तैयार की गई है। गिलोय इकट्ठा करना और उन्हें कंपनियों को भेजना एक अच्छा कारोबार है, लेकिन इस कारोबार की प्रकृति मौसमी है और साल में इसे तीन चार महीनों के लिए ही चलाया जा सकता है।

कातकरी समुदाय के लोग आजीविका की तलाश में गुजरात, कर्नाटक और महाराष्ट्र के रायगढ़ का रुख करते हैं, जहां वे ईंटों से जुड़े काम करते हैं। अतः साल के बाकी समय में इनके लिए रोजगार सुनिश्चित करने के क्रम में ट्राइफेड की योजना बकरी पालन को बढ़ावा देने की है। प्रत्येक को 70,000 से 80,000 रुपये दिये जाएंगे, जिससे 5 बकरी और एक हिरण खरीदा जा सकता है। हमने एक एनजीओ से साझेदारी की है जो इस संबंध में उन्हें प्रशिक्षित करेगी।