विविधसम्पादकीय

रोज नये गठजोड़

रोज नये गठजोड़
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●●●270
बोये पूरा गाँव जब, नागफनी के खेत ।
कैसे ‘सौरभ’ ना चुभे, किसे पाँव में रेत ।।
●●●271
बहरूपियों के गाँव में, कहें किसे अब मीत ।
अपना बनकर लूटते, रचकर झूठी प्रीत ।।
●●●272
भाई-भाई में हुई, जब से है तकरार ।
मजे पड़ोसी ले रहें, काँधे बैठे यार ।।
●●●273
मानवता बची नहीं, बढ़े न कोई हाथ ।
भाई के भाई यहाँ, रहा न ‘सौरभ’ साथ ।।
●●●274
भाई-बहना सा नहीं, दूजा पावन प्यार ।
जहाँ न कोई स्वार्थ है, ना बदले का खार ।।
●●●275
शायद जुगनूं की लगी, है सूरज से होड़ ।
तभी रात है कर रही, रोज नये गठजोड़ ।।
●●●276
रोज बैठकर पास में, करते आपस बात ।
‘सौऱभ’ फिर भी है नहीं, सच्चे मन जज्बात ।।
●●●277
‘सौरभ’ सब को जो रखे, जोड़े एक समान ।
चुभें ऑलपिन से सदा, वो सच्चे इंसान ।।
●●●278
सीख भला अभिमन्यु ले, लाख तरह के दाँव ।
कदम-कदम पर छल बिछें, ठहर सके ना पाँव ।।
●●●280
जो खुद से ही चोर है, करे चोर अभिषेक ।
उठती ऊँगली और पर, रखती कहाँ विवेक ।।
●●●281
जब से ‘सौरभ’ है हुआ, कौवों का गठजोड़ ।
दूर कहीं है जा बसी, कोयल जंगल छोड़ ।।
●●●282
ये कैसा षड्यंत्र है, ये कैसा है खेल ।
बहती नदियां सोखने, करें किनारे मेल ।।

Satywan Saurabh Satywan