सम्पादकीय

रविवारीय- हाथों में जहां ढेर सारे खिलौने होने थे, मोबाईल थमा दिया

आपने और हमने, हम सभी ने मिलकर उनकी ऊनिंदी आंखों में जहां भविष्य के सुनहरे सपने होने थे, हाथों में जहां ढेर सारे खिलौने होने थे, मोबाईल थमा दिया। ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर उनकी सुबह – सुबह की प्यारी, अलमस्त सी मदमाती नींद छीन ली। ऐसा लगा गोया अगर दो चार दिन उनकी पढ़ाई ना हो पायी

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

तो पता नहीं यह सुनामी क्या असर दिखाएगी।
अरे! बड़े बच्चों को कोल्हू में बैल की जगह जोतो ना किसने रोका है, पर कम से कम इन बच्चों को जो अभी अभी कुछ दिन पहले ही तो धरती पर आए हैं, क्यों उनका बचपन छीनने में लगे थे। दुर्योग से ही सही इनके लिए एक संयोग बना था, और हम सभी ने मिलकर उसे छीन लिया।
अहले सुबह आने वाले सपने वैसे भी सच होते हैं। बड़े बुजुर्गो ने हमें यही बताया है। हमने तो उन्हें इस सुख से ही वंचित कर दिया। जबरदस्ती बाध्य किया उन्हें अफीम चाटने को। आज़ जब वो अपनी सोशल मीडिया पर मशगूल हो गए तो हमें बुरा लग रहा है। हम सभी सोशल मीडिया के अत्यधिक सेवन पर अपने अपने मुताबिक प्रतिक्रियाएं व्यक्त कर रहे हैं। मतलब जबतक हमारा हित सध रहा है, सब कुछ बढ़िया। जहां हमारे हितों के विपरित बातें होती है हमें चक्कर आने लगते हैं। दिलों की धड़कनें बढ़ जाती हैं। हमें खुद को काबू में रखने में मेहनत करनी पड़ती है। दोष हमारा और ठीकरा कहीं और फोड़े जा रहे हैं।
छोटा बच्चा जिसे कुछ भी नहीं मालूम था कि मोबाईल किस बला का नाम है। हमने बस हमारी स्वतंत्रता कहीं बाधक ना हो, मोबाईल का उसे गुलाम बना दिया। खाना बनाते हुए या फिर कुछ काम करते हुए अगर बच्चा किसी काम से रो रहा है। रो कर अगर वो अपनी मां का सानिध्य चाह रहा है, हमने बतौर खिलौना उसकी हाथों में मोबाईल दे दिया। उसे टी. वी. के सामने ला खड़ा किया। वो समझ कुछ नहीं पा रहा है, पर आंखों के सामने तैरते चलते चित्रों को देखकर खुश हो रहा है। धीरे धीरे उसे इसकी आदत पड़ गई। अब आप कहते हैं बच्चा मोबाईल छोड़ नहीं रहा है। कसूरवार कौन? हम, आप सभी मिलकर ग़लत काम किए हैं। हमें तब बड़ी खुशी होती थी, जब हमारा बच्चा ये केन प्रकारेण मोबाईल ऑपरेट करना जान जाता था। हमारी खुशी औरौं के सामने छलक कर बाहर आती थी। आज़ जब बच्चे सोशल मीडिया के गुलाम हो गए हैं। एकाकी जीवन जीने लगे हैं। बहुत सारी उलजलूल घटनाएं घट रही हैं। छोटे बच्चे आत्महत्याएं कर रहे हैं। आपको लगता है कि वो आत्महत्या का मतलब भी समझते होंगे। बच्चों और उनके मां बाप, भाई बहन के बीच दूरियां बढ़ रही हैं। आपस का प्रेम भाईचारा कम हो रहा है, और हम सारा दोषारोपण बच्चों पर कर रहे हैं।
अब वक्त आ गया है। हम गलतियों को दूसरों के उपर ना थोप कर खुद जिम्मेदारी लें। बच्चों को समय दें। उनके साथ खेलें। उनके साथ जितना हो सके समय बिताएं। अगर आप चाहते हैं कि आपके बच्चे एक जिम्मेदार नागरिक बनें, वो संवेदनशील बनें तब अपनी जिम्मेदारी समझें और उनके सर्वांगीण विकास के लिए जी जान से जुट जाएं।
वैसे एक बात तो है, क्यूं हम बच्चों को दोष दें ? वैसे सोशल मीडिया है बड़ी ही ग़ज़ब की चीज। यहां लोगों के जज़्बात छलक छलक कर सामने आते हैं। ऐसा लगता है मानों किसी ने दिल खोलकर रख दिया हो। सिर्फ भक्त हनुमान ने ही अपना सीना चीर कर अपने अराध्य को नहीं दिखाया था। देख लो! हम भी हैं।

✒️ मनीश वर्मा’मनु’