मीरा चरित्र- “मुझे तन का पति नहीं, मन का पति ही पर्याप्त है”
भाग ०९
राव दूदाजी अपनी दस वर्ष की पौत्री मीरा की बातें सुनकर चकित रह गये। कुछ क्षण तो उनसे कुछ बोला नहीं गया।
“आप कुछ तो कहिये बाबोसा ! मेरा जी घबराता है। किससे पूछुँ यह सब? भाबू ने पहले मुझे क्यों कहा कि गिरधर ही मेरे वर है और अब स्वयं ही अपने कहे पर पानी फेर रही है ? जो हो ही नहीं सकता, उसका क्या उपाय? आप ही बताईये क्या तीनों लोको के धणी (स्वामी) से भी बड़ा मेवाड़ का राजकुमार है? और यदि है तो होने दो, मुझे नहीं चाहिए।”
“तू रो मत बेटा ! धैर्य धर! उन्होने दुपट्टे के छोर से मीरा का मुँह पौंछा- तू चिन्ता मत कर। मैं सबको कह दूँगा कि मेरे जीते जी मीरा का विवाह नहीं होगा। तेरे वर गिरधर गोपाल हैं और वही रहेंगे, किन्तु मेरी लाड़ली! मैं बूढ़ा हूँ। कै दिन का मेहमान? मेरे मरने के पश्चात यदि ये लोग तेरा ब्याह कर दें तो तू घबराना मत। सच्चा पति तो मन का ही होता है। तन का पति भले कोई बने, मन का पति ही पति है। गिरधर तो प्राणी मात्र का धणी है, अन्तर्यामी है उनसे तेरे मन की बात छिपी तो नहीं है बेटा। तू निश्चिंत रह।”
“सच फरमा रहे है, बाबोसा ?”
“सर्व साँची बेटा।”
“तो फिर मुझे तन का पति नहीं चाहिए। मन का पति ही पर्याप्त है।” दूदाजी से आश्वासन पाकर मीरा के मन को राहत मिली।
दूदाजी के महल से मीरा सीधे श्याम कुन्ज की ओर चली। कुछ क्षण अपने प्राणाराध्य गिरधर गोपाल की ओर एकटक देखती रही। फिर तानपुरा झंकृत होने लगा। आलाप लेकर वह गाने लगी।
आओ मनमोहना जी, जोऊँ थाँरी बाट।
खान पान मोहि नेक न भावे,नैणन लगे कपाट॥
तुम आयाँ बिन सुख नहीं मेरेेेे,दिल में बहुत उचाट।
मीरा कहे मैं भई रावरी, छाँड़ो नाहिं निराट॥
भजन पूरा हुआ तो अधीरतापूर्वक नीचे झुक कर दोनों भुजाओं में सिंहासन सहित अपने ह्रदयधन को बाँध चरणों में सिर टेक दिया। नेत्रों से झरते आँसू उनका अभिषेक करने लगे। ह्रदय पुकार रहा था “आओ सर्वस्व ! इस तुच्छ दासी की आतुर प्रतीक्षा सफल कर दो। आज तुम्हारी साख और प्रतिष्ठा दाँव पर लगी है।”
उसे फूट-फूट कर रोते देख मिथुला ने धीरज धराया। कहा कि,” प्रभु तो अन्तर्यामी है, आपकी व्यथा इनसे छिपी नहीं है।”
“मिथुला, तुम्हें लगता है वे मेरी सुध लेंगे? वे तो बहुत बड़े है। मेरी क्या गिनती? मुझ जैसे करोड़ों जन बिलबिलाते रहते है। किन्तु मिथुला ! मेरे तो केवल वही एक अवलम्ब है। न सुने, न आयें, तब भी मेरा क्या वश है?” मीरा ने मिथुला की गोद में मुँह छिपा लिया।
“पर आप क्यों भूल जाती है बाईसा कि वे भक्तवत्सल है, करूणासागर है, दीनबन्धु है। भक्त की पीड़ा वे नहीं सह पाते-दौड़े आते है।”
“किन्तु मैं भक्त कहाँ हूँ मिथुला? मुझसे भजन बनता ही कहाँ है? मुझे तो केवल वह अच्छे लगते है। वे मेरे पति हैं – मैं उनकी हूँ। वे क्या कभी अपनी इस दासी को अपनायेगें ? उनके तो सोलह हज़ार एक सौ आठ पत्नियाँ है उनके बीच मेरी प्रेम हीन रूखी सूखी पुकार सुन पायेंगे क्या ? तुझे क्या लगता है मिथुला ! वे कभी मेरी ओर देखेंगे भी क्या ?”
मीरा अचेत हो मिथुला की गोद में लुढ़क गई।”
क्रमशः
आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
सरस् श्रीरामकथा व श्रीमद्भागवत कथा व्यास श्री धाम श्री अयोध्या जी
संपर्क सूत्र:-9044741252