महाकवि सूरदास जिन्होंने जगत को दिखाई श्री कृष्णलीला, संत श्री सूरदास का जन्मोत्सव आज
महाकवि सूरदास जिन्होंने जगत को दिखाई श्री कृष्णलीला, संत श्री सूरदास का जन्मोत्सव आज
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महाकवि सूरदास जिन्होंने जन-जन को भगवान श्री कृष्ण की बाल लीलाओं से परिचित करवाया। जिन्होंनें जन-जन में वात्सल्य का भाव जगाया। नंदलाल व यशोमति मैया के लाडले को बाल गोपाल बनाया। कृष्ण भक्ति की धारा में सूरदास का नाम सर्वोपरि लिया जाता है। सूरदास जिन्हें बताया तो जन्मांध जाता है लेकिन जो उन्होंने देखा वो कोई न देख पाया। गुरु वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्ग पर सूरदास ऐसे चले कि वे इस मार्ग के जहाज तक कहलाए। अपने गुरु की कृपा से भगवान श्री कृष्ण की जो लीला सूरदास ने देखी उसे उनके शब्दों में चित्रित होते हुए हम भी देखते हैं। वैशाख शुक्ल पंचमी को सूरदास जी की जन्मोत्सव मनाई जाती है।
सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय
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सूरदास का संपूर्ण जीवन कृष्ण भक्ति में बीता है। उन्होंने कृष्ण की लीलाओं पर पद लिखे व गाए। यह जिम्मेदारी उन्हें सौंपी थी उनके गुरु वल्लभाचार्य ने। सूरदास के जन्म को लेकर विद्वानों के मत अलग-अलग हैं। कुछ उनका जन्म स्थान गांव सीही को मानते हैं जो कि वर्तमान में हरियाणा के फरीदाबाद जिले में पड़ता है तो कुछ मथुरा-आगरा मार्ग पर स्थित रुनकता नामक ग्राम को उनका जन्मस्थान मानते हैं। मान्यता है कि १४७८ ई.
में इनका जन्म हुआ था। सूरदास
एक निर्धन सारस्वत ब्राह्मण परिवार
में जन्मे थे। इनके पिता रामदास भी गायक थे। इनके जन्मांध होने को लेकर भी विद्वान एकमत नहीं हैं। दरअसल इनकी रचनाओं में जो सजीवता है, जो चित्र खिंचते हैं, जीवन के विभिन्न रंगों की जो बारीकियां हैं उन्हें तो अच्छी भली नज़र वाले भी बयां न कर सकें, इसी कारण इनके अंधेपन को लेकर शंकाएं जताई जाती हैं। इनके बारे में प्रचलित है, कि ये बचपन से साधु प्रवृति के थे। इन्हें सगुन बताने कला वरदान रूप में मिली थी। जल्द ही ये बहुत प्रसिद्ध भी हो गए थे। लेकिन इनका मन वहां नहीं लगा और अपने गांव को छोड़कर समीप के ही गांव में तालाब किनारे रहने लगे। जल्द ही ये वहां से भी चल पड़े और आगरा के पास गऊघाट पर रहने लगे। यहां ये जल्द ही स्वामी के रूप में प्रसिद्ध हो गए। यहीं पर इनकी मुलाकात वल्लभाचार्य जी से हुई। उन्हें इन्हें पुष्टिमार्ग की दीक्षा दी और श्री कृष्ण की लीलाओं का दर्शन करवाया। वल्लभाचार्य ने इन्हें श्री नाथ जी के मंदिर में लीलागान का दायित्व सौंपा जिसे ये जीवन पर्यंत निभाते रहे।
कैसे हुई सूरदास की मृत्यु
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मान्यता है कि इन्हें अपने देहावसान का आभास पहले से ही हो गया था। इनकी मृत्यु का स्थान गांव पारसौली माना जाता है। मान्यता है कि यहीं पर भगवान श्री कृष्ण ने रासलीला की थी। श्री नाथ जी की आरती के समय जब सूरदास वहां मौजूद नहीं थे तो वल्लाभाचार्य को आभास हो गया था कि सूरदास का अंतिम समय निकट है। उन्होंने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए इसी समय कहा था कि पुष्टिमार्ग का जहाज़ जा रहा है जिसे जो लेना हो ले सकता है। आरती के बाद सभी सूरदास जी के निकट आए। तो अचेत पड़े सूरदास जी में चेतना आई। कहते हैं कि जब उनसे सभी ज्ञान ग्रहण कर रहे थे तो चतुर्भुजदास जो कि वल्लाभाचार्य के ही शिष्य थे ने शंका प्रकट की कि सूरदास ने सदैव भगवद्भक्ति के पद गाए हैं, गुरुभक्ति में कोई पद नहीं गाया। तब उन्होंने कहा कि उनके लिए गुरु व भगवान में कोई अंतर नहीं है, जो भगवान के लिए गाया वही गुरु के लिए भी। तब उन्होंने भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो नामक पद गाया। इसके बाद चित्त और नेत्र की वृति को लेकर विट्ठलनाथ जी द्वारा पूछे प्रश्न पर बलि बलि हों कुमरि राधिका नंद सुवन जासों रति मानी और खंजन नैन रूप रस माते पद गाए। यही उनके अंतिम पद भी थे जो उन्होंने गाए। इसके बाद पुष्टिमार्ग का जहाज़ गोलोक को गमन कर गया।
कब मनाई जाती है सूरदास जी की जयंती
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सूरदास की जन्मतिथि को लेकर पहले मतभेद था, लेकिन पुष्टिमार्ग के अनुयायियों में प्रचलित धारणा के अनुसार सूरदास जी को उनके गुरु वल्लाभाचार्य जी से दस दिन छोटा बताया जाता है। वल्लाभाचार्य जी की जयंती वैशाख कृष्ण एकादशी को मनाई जाती है। इसके गणना के अनुसार सूरदास का जन्म वैशाख शुक्ल पंचमी को माना जाता है। इस कारण प्रत्येक वर्ष सूरदास जी की जन्मोत्सव इसी दिन मनाई जाती है।
आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
सरस् श्री रामकथा व श्रीमद्भागवत कथा व्यास श्री धाम श्री अयोध्या जी
संपर्क सूत्र:-9044741252