सम्पादकीय

सरकारी नौकरी- “रविवारीय” में आज पढ़िए ख्वाब, हकीकत और जिम्मेदारियां

मां और पिताजी, दोनों ही सरकारी नौकरी में थे। घर का माहौल कुछ यूं था कि पढ़ाई-लिखाई का अंतिम लक्ष्य नौकरी हासिल

मनीश वर्मा ,लेखक और विचारक

करना ही था और वह भी —सरकारी नौकरी। कोई विकल्प नहीं, कोई और ख़्वाब नहीं। आपकी स्थिति बिल्कुल वैसी ही जैसे कोई घोड़ा तांगे में जुता हो और उसकी आंखों पर पट्टी बंधी हो—उसे केवल सीधा रास्ता दिखता है, इधर-उधर देखने का ना कोई अधिकार, ना उसकी आदत। अगर गुस्ताखी कर दिया तो फ़िर कोचवान की चाबुक तो है ही।

सच कहूं, तो आज से तीस-चालीस साल पहले वैसे भी विकल्प कहां थे ? अगर बच्चा विज्ञान में अच्छा है तो डॉक्टर बनेगा या इंजीनियर—बस दो ही रास्ते। अगर Humanities की ओर रुझान है, तो फिर सिविल सेवा—यही एकमात्र विकल्प समझा जाता था। बाक़ी सारे सपने, सारी संभावनाएं उस एक संभावना के बाद ही आती थीं, अगर आती थीं तो ! कला, संगीत, लेखन – ये सब ‘ शौक ‘ की श्रेणी में आते थे ‘ करियर ‘ की नहीं।

मां हमेशा कहती थीं—“नौकरी की नहीं निभाई जाती है।” और पिताजी का अंदाज़ कुछ और ही था—“नौकरी ना करी और करी तो ना, ना करी।”
तब ये बातें किसी पहेली जैसी लगती थीं। लगता था, ये लोग कुछ ज़्यादा ही पुराने ख्यालों के हैं। सच कहें तो गुलामी सी लगती थी ये सारी बातें।
तब तो यही लगता था कि दुनिया मेरी मुट्ठी में है। मैं जो चाहूं, कर सकता हूं।

लेकिन वक्त ने धीरे-धीरे, बहुत सलीके से ये सबक समझा दिया। तीन दशक की नौकरी के बाद अब जाकर समझ में आता है कि मां-बाप की बातें सिर्फ कहावतें नहीं थीं, वो अनुभव की निचोड़ थीं। ऐसी सच्चाइयां, जो किताबों में नहीं मिलतीं, लेकिन हर नौकरीपेशा के दिल में लिखी होती हैं।

आज जब सेवा नियमावली का पहला पन्ना पलटता हूं, तो हर शब्द जैसे चुभता नहीं, समझ आता है।
ट्रांसफर, पोस्टिंग, प्रोमोशन, विजिलेंस जांच—ये शब्द महज़ औपचारिक प्रक्रियाएं नहीं हैं, ये हमारी पूरी ज़िंदगी की दिशा तय कर सकते हैं।
” आपका पद आपकी पहचान नही है। व्यवस्था की डोर थामे रहना ही आपकी जिम्मेदारी है।” इसे समझने की जरूरत है।
कभी आधी रात किसी दूर के जिले का ट्रांसफर ऑर्डर आता है, जो आपके मन माफिक नहीं है, तो कभी प्रमोशन की आस लेकर सालों बैठना पड़ता है। हर बार आपको एक निर्णय का पालन करना होता है, जो आपने खुद नहीं लिया। कभी वह निर्णय आपकी ज़िंदगी को संवार देता है, तो कभी एक ही पल में सब कुछ उथल-पुथल कर देता है। आपको बेपटरी कर दे सकता है,पर इन
सबके बीच आप मुस्कराते रहते हैं, रोज़ दफ्तर जाते हैं, फाइलें पलटते हैं, कंप्यूटर पर आंखें गड़ाए रहते हैं, मीटिंग्स करते हैं, मीटिंग्स का हिस्सा बनते हैं। क्योंकि यही आपकी ज़िम्मेदारी है, यही आपकी पहचान है। पर सुकून ? वह तो शायद उस दिन आता है जब आप “सेवानिवृत्त” होते हैं—बशर्ते कि आप उस दिन तक खुद को सही सलामत, मानसिक और शारीरिक रूप से, बचाकर ला सके हों। अब आपकी जिंदगी की दूसरी पारी शुरू होती है, पर प्रभाव कहीं ना कहीं पहली पारी का ही होता है।

हर फॉर्म, हर फाइल, हर आदेश आपकी स्वतंत्रता की एक परत छीलता है। और फिर भी, हर महीने की पहली तारीख को मिलने वाली तनख्वाह ( महीने भर तन खपाने के बाद मिलने वाला ), उस छिले हुए आत्मसम्मान पर एक मरहम बन जाती है।

ये नौकरी है साहब—कभी वरदान, कभी अभिशाप। लेकिन अंततः एक ऐसा अनुभव, जो आपको जीवन के हर रंग से रूबरू कराता है।

✒️ मनीश वर्मा’मनु’

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