विविध

जन्माष्टमी पर विशेष- कविता

भक्ति कृष्ण की है यही,
और यही है धर्म !
स्थान,जरूरत, काल के,
करो अनुरूप कर्म !!
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सब पाखंडी हो गए,
जनता, राजा, संत !
देख दुखी हैं कृष्णा,
धर्म-कर्म का अंत !!
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जो देखो वो दे रहा,
सौरभ अब उपदेश !
मिटे किसी के है नहीं,
मन के पाप क्लेश !!
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व्यर्थ मने जन्माष्टमी,
व्यर्थ सभी कीर्तन !
नहीं कर्म में धर्म यदि,
साफ़ नहीं है मन !!
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सभी नाथ को गा रहें,
अमल करें ना कोय !
नहीं कर्म में कृष्णा,
तो कैसे दिव्य होय !!
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✍ डॉo सत्यवान सौरभ