पुरी के जगन्नाथ मंदिर की कहानी
जगन्नाथ धाम हिंदू धर्म व पुराणों के आधार पर चार धामों में से एक है. जगन्नाथ धाम को धरती पर वैकुंठ भी कहा गया है. आपको बता दें कि यहां भगवान विष्णु ने तरह तरह की लीलाएं की थीं. जगन्नाथ धाम भाई-बहन के पवित्र रिश्तों का भी बखान करती है. बता दें कि जगन्नाथ धाम में भगवान श्रीकृष्ण, उनकी बहन सुभद्रा और उनके बड़े भाई बलराम की मूर्ति की पूजा यहां की जाती है.
वहीं रथयात्रा निकालने की परंपरा की बात करें तो पौराणिक मान्यताओं के अनुसार स्नान पूर्णमा के दिन भगवान जगन्नाथ का जन्मदिन होता है. इस दिन भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम औप बहन सुभद्रा को रत्म सिंहासन से उतारकर मंदिर के समीप बने एक मंडप में ले जाया जाता है. यहां इन्हें स्नान कराया जाता है. यह स्नान 108 कलशों के माध्यम से कराया जाता है. 15 दिन विशेष कक्ष में भगवान समय बिताकर जब भगवान कक्ष से बाहर निकलते हैं तो वे लोगों को दर्शन देते हैं. इसे नव यौवन नैत्र उत्सव कहा जाता है. इसके बाद भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और बड़े भाई बलराम के साथ बाहर आते हैं और अपने रथ पर विराजमान हो कर भ्रमण करने निकलते हैं. भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलराम और बहन सुभद्रा के रथ को कोई भी भक्तगण खींच सकता है. इसका नमून आपको हर साल रथ यात्रा में देखने को मिल सकता है. क्योंकि हर साल भगवान के रथ को खींचने के लिए भक्तों में होड़ लगी रहती है. सभी इस रथ को खींचकर पुण्य का भागी बनना चाहते हैं. कहते हैं कि भगवान के रथ को खींचने से लोगों को जीवन काल के चक्र से मुक्ति मिल जाती है. पूरी तरह से सुसज्जित इस रथयात्रा का नजारा भी भव्य दिखाई देता है. वर्तमान में रथ-यात्रा का चलन भारत के अन्य वैष्णव कृष्ण मंदिरों में भी खूब जोरों पर है. अब तो छोटे-छोटे शहरों में भी भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के आयोजन होते हैं.
मंदिर स्थापना एक रोचक कथा
इस मंदिर की स्थापना मालवा के राजा इंद्रदयुम्न ने कराया था. इनके पिता का नाम भारत और माता का नाम सुमति था. कहा जाता है कि भगवान जगत के स्वामी जगन्नाथ भगवान श्री विष्णु की इंद्रनील या कहें नीलमणि से बनी मूर्ति एक अगरु वृक्ष के नीचे मिली थी. मूर्ति की भव्यता को देखकर धर्म ने इसे पृथ्वी के नीचे छुपा दिया. पौराणिक कथाओं के अनुसार राजा को एक बार सपने में भगवान जगन्नाथ के दर्शन हुए थे. सपने में भगवान ने राजा से अपनी एक मूर्ति को नीलींचल पर्वत की गुफा में ढूंढने और मूर्ति को एक मंदिर बनवाकर स्थापित करने को कहा. इस मूर्ति को भगवान ने नीलमाधव बताया. इसके बाद राजा अपने सेवको के साथ नीलांचल पर्वत की गुफा में भगवान की मूर्ति ढूंढने निकल पड़ते हैं. राजा के साथ जो लोग निकले थे उनमें से एक ब्राह्मण का नाम विद्यापति था. विद्यापति को सबर कबीले के लोगों के बारे पता था जो नीलमाधव की पूजा करते हैं.
विद्यापति को यह भी मालूम था कि भगवान नीलमाधव की प्रतिमा को गुफा के अंदर सबर कबीले के लोग छिपा कर रखते हैं. इस कबीले का मुखिया विश्ववसु भगवान का उपासक था. हालांकि भगवान की मूर्ति पाने के लिए मुखिया का आदेश सर्वोपरि था और मुखिया भगवान का उपासक. वह किसी भी हाल में भगवान की मूर्ति देने को तैयार न होता. इस कारण विद्यापति ने चालाकी से मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया. अपनी पत्नी के सहारे विद्यापति उस गुफा तक पहुंचने में कामयाब हो गए जहां भगवान नीलमाधव की मूर्ति रखी गई थी. विद्यापति ने नीलमाधव की मूर्ति को चुरा लिया और राजा को सौंप दिया.
कहते हैं कि विश्ववसु अपने भगवान की मूर्ति के चोरी होने से काफी दुख हुआ. इस कारण भगवान को भी काफी दुख हुआ कि उनका उपासक दुखी है. इस कारण नीलमाधव वापस गुफा में लौट गए और राजा इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वह एक दिन उनके पास जरूर लौंटेंगे, लेकिन राजा उनके लिए एक मंदिर बनवा दे. इसके बाद राजा ने मंदिर बनवाकर भगवान से विराजमान होने के लिए कहा तभी स्वयं श्री हरि ने सपने में दर्शन दिये और भगवान ने कहा कि द्वारका से तैरकर पुरी की तरफ आ रहे बड़े से पेड़ के टुकडे़ को लेकर आओ उस से मूर्ति का निर्माण कराओ. राजा जब तट पर पंहुचे तो उन्हें लकड़ी का लट्ठा मिल गया. अब उनके सामने यह प्रश्न था कि मूर्ति किनसे बनवाये.
कहा जाता है कि भगवान विष्णु स्वयं श्री विश्वकर्मा के साथ एक वृद्ध मूर्तिकार के रुप में प्रकट हुए. उन्होंनें कहा कि वे एक महीने के अंदर मूर्तियों का निर्माण कर देंगें लेकिन इस काम को एक बंद कमरे में अंजाम देंगें. एक महीने तक कोई भी इसमें प्रवेश नहीं करेगा ना कोई तांक-झांक करेगा चाहे वह राजा ही क्यों न हों. महीने का आखिरी दिन था, कमरे से भी कई दिन से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी, तो कोतुहलवश राजा से रहा न गया और अंदर झांककर देखने लगे लेकिन तभी वृद्ध मूर्तिकार दरवाजा खोलकर बाहर आ गये और राजा को बताया कि मूर्तियां अभी अधूरी हैं उनके हाथ नहीं बने हैं. राजा को अपने कृत्य पर बहुत पश्चाताप हुआ और वृद्ध से माफी भी मांगी लेकिन उन्होंने कहा कि यही दैव की मर्जी है. तब उसी अवस्था में मूर्तियां स्थापित की गई. आज भी भगवान जगन्नाथ, बलभद्र एवं सुभद्रा की मूर्तियां उसी अवस्था में हैं.
जगन्नाथ मंदिर के आश्चर्य
4 लाख वर्ग फुट के विस्तृत क्षेत्र में फैला भगवान जगन्नाथ का यह मंदिर चहारदिवारी से घिरा है और कलिंग शैली की मंदिर स्थापत्यकला व शिल्प के प्रयोग से बना भारत के भव्य स्मारक स्थलों में शुमार है. मंदिर का मुख्य ढांचा 214 फुट ऊंचे पाषाण चबूतरे पर बना है. वैसे तो भारत के बहुत सारे मंदिरों के साथ आश्चर्य जुड़े हुए हैं लेकिन जगन्नाथ मंदिर से जुड़े आश्चर्य बहुत ही अद्भुत हैं. इनमें से कुछ इस प्रकार हैं-
यह भी किसी रहस्य से कम आपको नहीं लगेगा कि मंदिर के सिंहद्वार से एक कदम आप अंदर रखें तो आपको समुद्र की लहरों की आवाज़ नहीं सुनाई देगी, विशेषकर शाम के समय आप इस अद्भुत अनुभव को बहुत अच्छे से महसूस कर सकते हैं. लेकिन जैसे ही मंदिर से बाहर कदम निकालना आपको सपष्ट रुप से लहरों की आवाज़ सुनाई देगी.
विज्ञान का नियम है कि जिस पर भी रोशनी पड़ेगी उसकी छाया भले ही आकार में छोटी या बड़ी बने बनेगी जरुर. लेकिन भगवान जगन्नाथ के मंदिर का ऊपरी हिस्सा के किसी भी समय इसकी परछाई नजर नहीं आती.
श्री जगन्नाथ के मंदिर में स्थित रसोई दुनिया की सबसे बड़ी रसोई मानी जाती है. प्रसाद पकाने के लिये 7 बर्तनों को एक दूसरे के ऊपर रखा जाता है और प्रसाद पकने की प्रक्रिया सबसे ऊपर वाले बर्तन से शुरु होती है. मिट्टी के बर्तनों में लकड़ी पर ही प्रसाद पकाया जाता है सबसे नीचे वाले बर्तन का प्रसाद आखिर में पकता है. हैरत की बात यह भी है कि मंदिर में प्रसाद कभी भी कम नहीं पड़ता और जैसे ही मंदिर के द्वार बंद होते हैं प्रसाद भी समाप्त हो जाता है.
मंदिर के शिखर पर ही अष्टधातु निर्मित सुदर्शन चक्र है. खास बात यह है कि यदि किसी भी कोने से किसी भी दिशा से इस चक्र को आप देखेंगें तो ऐसा लगता है जैसे इसका मुंह आपकी तरफ है.
मंदिर के शिखर पर स्थित ध्वज हमेशा हवा की विपरीत दिशा में लहराता है. ऐसा क्यों होता है यह एक रहस्य ही बना हुआ है. यह कहावत तो आपने सुनी होगी कि यहां मर्जी के बिना परिंदा भी पर नहीं मार सकता लेकिन जगन्नाथ मंदिर में तो इस कहावत को सच होता देख सकते हैं. परिंदों का पर मारना तो दूर हवाई जहाज तक मंदिर के ऊपर से नहीं गुजरते.
अक्सर समुद्री इलाकों में हवा का रुख दिन के समय समुद्र से धरती की तरफ होता है जब कि शाम को उसका रुख बदल जाता है वह धरती से समुद्र की ओर बहने लगती है, लेकिन यहां भगवान जगन्नाथ की माया इसे उल्टा कर देती है और दिन में धरती से समुद्र की ओर व शाम को समुद्र से धरती की ओर हवा का बहाव होता है.
कैसे पंहुचे जगन्नाथ पुरी धाम
वैसे तो जब भक्त का बुलावा भगवान करते हैं तो वह दुर्गम से दुर्गम स्थल पर भी पंहुच जाता है और जब उसकी मर्जी नहीं होती तो आंखों के सामने होते हुए भी प्राणी अंदर प्रवेश नहीं कर सकता. जगन्नाथ पुरी पंहुचने के लिये रेल, सड़क वायु किसी भी मार्ग से देश के किसी भी हिस्से से आसानी से पंहुचा जा सकता है.