खत्म होती मानवीय संवेदनाओं के बीच भी कई फरिश्ते बनते हैं प्रेरणास्रोत
आज के भाग दौर एवं व्यस्त जिंदगी के वजह से लोग बहुत परेशान रहते हैं, उन्हें अपनी समस्याओं को सुलझाने में ही फुर्सत नहीं मिलती, वैसी स्थिति में दूसरों की परेशानियों पर क्या ध्यान देंगे। बावजूद इसके इस दुनिया में कई ऐसे लोग हैं जिनके मानवीय संवेदना दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत बन जाती हैं।
वर्तमान समय में न्यायालय, अस्पताल, पुलिस ऐसी जगह है जहां लोग न्याय, संवेदना और सुरक्षा के लिए जाते हैं पर कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लोगों को अत्यंत निराशा हाथ लगती है। चिकित्सकों और अस्पतालों के नाम से हीं लोग डर जाते हैं। ऐसे में कई ऐसे चिकित्सक होते हैं जो लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बन जाते हैं। अक्सर सुनने को मिलता है कि फलां हॉस्पिटल के चक्कर में जमीन बिक गया तो सब पैसा खतम हो गया। लेकिन इसमें कई अपवाद भी होते हैं कि फलां डॉक्टर साहब नहीं होते तो मेरे बाबू जी या अन्य कोई परिवार के सदस्य नहीं बचते। वो तो भगवान हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व हॉस्पिटल पर चर्चा के दौरान एक बात सामने आई पटना के अनुपमा हॉस्पिटल की। ये हॉस्पिटल प्रख्यात चिकित्सक डॉक्टर नरेंद्र प्रसाद का है। यहां को घटना का विवरण करते हुए बताया गया कि अनुपमा अस्पताल के निदेशक डॉ आलोक अभिजीत, जिन्होंने दीपावली के दो रात पहले गंभीर अवस्था में भर्ती हुए 1 बच्चे को पूरी रात मशक्कत करने के बाद बचा लिया। उस बच्चे की हालत अत्यंत खराब थी। भर्ती होने के पश्चात आधी रात में खुद अपनी निगरानी में लेकर उसकी उचित देखभाल और इलाज के बाद न सिर्फ बच्चे की जान बची बल्कि दीपावली के दिन बच्चे के परिजनों के चेहरे पर दिखने वाली मुस्कुराहट बहुत कुछ बयां कर रही थी।
इतना ही नहीं जब सभी लोग अपने परिवार के साथ दीपावली के दिन अपने परिवार के साथ खुशियां मना रहे थे, उस वक्त डॉ आलोक अपनी टीम के साथ अपने अस्पताल में इस बच्चे के अलावे अन्य भर्ती बच्चों के लिए मिठाई एवं पटाखे बांट रहे थे। उनके साथ दीपावली मना रहे थे। उन्हें वह खुशी देने का प्रयास कर रहे थे जो यह बच्चे अपने घर पर होने के बाद करते।
डॉक्टर आलोक अपने प्रयास से न केवल बच्चे बल्कि उनके परिजनों को भी दीपावली के शुभ अवसर पर मुस्कुराने का मौका दिया।
डॉक्टर आलोक अभिजीत ख्यातिलब्ध डॉक्टर नरेंद्र प्रसाद के पुत्र हैं। इनकी सेवा भावना की जितनी तारीफ की जाए कम है।
यहां महज एक पटाखे या मिठाई की बात नहीं है, यहां बात है संवेदनाओं की, यहां बात है बच्चे के मनोवैज्ञानिक इलाज की। परिजनों के दिलो दिमाग से अस्पताल के भय को खत्म करने की।
अगर इस प्रकार लोग अपने कार्य को ईमानदारी से निभायेंगे तो शायद अस्पताल, पुलिस और न्यायालय के प्रति लोगों के दिलों में भरोसा बढ़ेगा और भय खत्म होगा।
डॉक्टर आलोक सिर्फ एक उदाहरण नहीं हैं। अगर धरती पर लुटेरे हैं तो इसी धरती पर फरिश्ते भी हैं।