नकली वार, असली साज़िश, “रविवारीय” में आज पढ़िए बदले की ये कैसी कहानी?
अख़बार के पन्नों की एक चौंकाने वाली सुर्ख़ी थी—
“सीने में चीरा लगवाकर रखवाई गोली, बोली—मुझे मारा गया!”

पहली बार में पढ़कर कोई भी सन्न रह जाए। पर जैसे-जैसे पूरा मामला खुलता है, यक़ीन करना मुश्किल हो जाता है कि यह कोई फ़िल्मी स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि हकीकत है।
घटना उत्तर प्रदेश के बरेली जिले की है, जहां एक महिला ने एक जनप्रतिनिधि को फंसाने के लिए ऐसी साजिश रच डाली, जिसकी कल्पना एक अनुभवी थ्रिलर लेखक भी न कर पाए। महिला ने खुद को झूठा ‘शिकार’ दिखाने के लिए अपने ही सीने में चीरा लगवाया, उसमें 32 बोर की गोली रखवाई, और फिर सरेआम शोर मचा दिया कि उस पर हमला हुआ है। उसने दावा किया कि कुछ युवकों ने उसे अगवा किया, बलात्कार किया और फिर गोली मार दी।
प्रथम दृष्टया मामला दिल दहला देने वाला प्रतीत हुआ। महिला घायल थी, पुलिस ने गंभीरता से मामला दर्ज किया। रिपोर्ट दर्ज हुई, जांच शुरू हुई। लेकिन एक सवाल पुलिस की समझ में नहीं आ रहा था—
“गोली चली है, तो बारूद के अंश कहां हैं?”
मेडिकल जांच हुई, फॉरेंसिक रिपोर्ट आई और परतें खुलती गईं। आखिरकार, पूछताछ के दौरान महिला ने जो खुलासा किया, वह समाज की मानसिकता पर गंभीर सवाल छोड़ गया। उसने स्वीकार किया कि उसने एक झोलाछाप डॉक्टर से अपने सीने में चीरा लगवा कर गोली रखवाई थी। और बारूद के जलने जैसा निशान दिखाने के लिए एक ₹5 का सिक्का गर्म करके सीने पर रखवाया था। जलन से साड़ी से लेकर त्वचा तक जली हुई दिखाई देने लगी, और वहीं से उसने कहानी बुन दी कि उसी छेद से गोली घुसी थी।
एक अद्भुत अभिनय, एक त्रासद कथा—पर सबकुछ झूठ पर आधारित।
इस घटना को देख कर बरबस ही मुंह से निकलता है—
“हे भगवान! मेरी एक आंख ले लो, पर सामने वाले की दोनों आंखें फोड़ दो।”
किसी को नुकसान पहुंचाने के लिए खुद को ही तकलीफ़ देना—यह कैसा अंधा प्रतिशोध है? किस मोड़ पर आ गया है हमारा समाज?
आज जब समाज जाति, धर्म, राजनीति और व्यक्तिगत द्वेष की आग में झुलस रहा है, ऐसे झूठे मामलों से न्याय की नींव तक हिल जाती है। सोचिए, अगर पुलिस सतर्क न होती, तो वह निर्दोष व्यक्ति बलात्कार और हत्या के आरोप में जेल के अंदर होता—शायद ज़िंदगीभर के लिए।
यह घटना सिर्फ़ एक ‘अपराध’ नहीं है, यह हमारे सामाजिक और नैतिक पतन की झलक है।
जब झूठ को सच से ज़्यादा सुनवाई मिलने लगे, जब व्यक्तिगत रंजिश समाज से बड़ी हो जाए, तब इस तरह की घटनाएं सामने आती हैं।
पुलिस ने समय रहते सच उजागर कर दिया, वरना वह व्यक्ति अकेले ही न्याय के खिलाफ एक लंबी लड़ाई लड़ता रह जाता।
कहने को यह मामला सिर्फ एक एफआईआर का है, पर असल में यह एक समाजशास्त्रीय त्रासदी है।
अब सवाल यह है कि क्या यह केवल एक महिला की करतूत थी? या यह उस मानसिकता का प्रतिनिधित्व करती है, जो अब धीरे-धीरे हमारे समाज में जगह बना रही है—जहां सच्चाई, मर्यादा और इंसानियत से ज़्यादा अहम हो गया है ‘बदला’ और ‘दिखावा’?
समाज को इस पर गहराई से सोचने की ज़रूरत है।
हमें तय करना होगा कि हम किस दिशा में जा रहे हैं।
क्योंकि अगर यही चलता रहा, तो एक दिन सच की आवाज़ इतनी धीमी हो जाएगी कि वह सिर्फ़ किताबों में पढ़ी जाएगी।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’