सम्पादकीय

रविवासरीय-:आंखों में हम भी ढेरों सपने सजाए राम राज्य की बातें करते हैं

“आप मुस्कुराएं कि आप लखनऊ में हैं।” लखनऊ में आपको जगह – जगह पर यह श्लोगन लिखा हुआ मिलेगा। चलिए, लखनऊ को अपने आप पर इतना नाज़ तो है कि वो किसी के चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकता है। तहज़ीब, नफ़ासत और नज़ाकत का शहर है जो है। वैसे किसी के चेहरे पर मुस्कराहट ला पाना अगर मुश्किल नहीं तो इतना आसान भी नहीं है।

कहते हैं कि “नज़ाकत से लबरेज़ इस शहर में रसगुल्ले भी छील कर खाए जाते हैं”

ऐसा कहा जाता है कि नज़ाकत से लबरेज़ इस शहर में रसगुल्ले भी छील कर खाए जाते हैं। तहज़ीब तो बस्स पहले आप पहले

मनीष वर्मा,लेखक और विचारक

आप, और इसके आगे क्या कहें हम। “नवाबों का शहर” जो ठहरा। इसी नाम से वैश्विक पहचान। अपने इसी पहचान को लेकर आगे बढ़ता हुआ शहर। उत्तर प्रदेश की राजधानी, पर अब पहले जैसी बात कहां रही। शहर काफी विस्तार ले चुका है। जिस लखनऊ की हम बातें कर रहे हैं वो अब बस अब गोमती नदी के इस तरफ़ तक ही सिमट सा गया है।

गोमती के एक तरफ़ खालीस अंदाज लखनवी तो दूसरी तरफ़ प्रवासियों को समेटता हुआ शहर

गोमती के इस तरफ़ और उस तरफ में काफी फर्क दिखाई देता है। एक तरफ़ खालीस लखनऊ और अंदाज लखनवी तो एक तरफ़ अपने आप में प्रवासियों को समेटता हुआ शहर। गोमती नगर से शुरू हुआ प्रवासियों का यह हिस्सा अब काफी आगे बढ़ लखनऊ की एक नई पहचान बन चुका है। पहले गोमती नगर, फिर गोमती नगर विस्तार और खैर अब तो यह आगे बढ़ता ही जा रहा है। बड़े और भव्य माॅल अब आपको गोमती के पार ही देखने को मिलते हैं। अब मुस्कुराहटों, तहज़ीब और नज़ाकत से थोड़ा आगे निकल हम आपको आज़ कुछ और ही नज़ारा दिखाते हैं। उन नजारों पर हमारी नजर बहुत बार पड़ी होगी, पर हम अपनी नजरें वहां पर टिकाना नहीं चाहते हैं, फेर लेते हैं। हालांकि यह कहानी सिर्फ लखनऊ की नहीं है। यह कहानी तो उन तमाम बड़े शहरों की है जो विस्तार ले रहा है।

एक रेला जो लगभग सभी महानगरों के रेलवे स्टेशनों और बस स्टैंडों पर दिखता है

सुबह करीब आठ सवा आठ का वक्त रहा होगा। सप्ताह में पांच दिन का कार्यालय, सो शनिवार का दिन थोड़ा अलसाते हुए। ठंड अभी पुरी तरह से गई नहीं है। जाऊं की ना जाऊं वाली स्थिति है। कभी लगता है अब तो वो गई, पर शाम होते ही फिर से वापस। आप बहक तो कतई नहीं सकते हैं।
नींद हालांकि अपने तय समय पर टूट चुकी होती है, पर दिमाग और शरीर दोनों ही छुट्टी के मोड पर है। अचानक से मेरी नज़र बालकनी के बाहर जाती है। एक रेला सा नजर आता है। कुछ – कुछ ऐसा ही दृश्य सुबह सुबह आपको महानगरों में खासकर रेलवे स्टेशनों और बस स्टेशन पर लोगों की भीड़ एक रेले की शक्ल में आपको दिखती है। वहां सभी आपको बस भागते हुए नजर आते हैं। हर कोई उस भीड़ का, उस रेले का महज़ एक हिस्सा भर होता है।
हां तो हम बातें कर रहे थे उस रेले की जो मुझे बालकनी से दिखाई दे रहा था। मेहनतकश और मजदूरों की एक भीड़ जो बस चली जा रही है। क्या महिलाएं क्या पुरुष बस सभी भागते हुए दिखाई पड़ रहे हैं। हाथों में मौजूद छोटे से एक कपड़े के थैले में या फिर कहीं से जुगाड़ की गई किसी बड़े शो रूम की थैली में टिफिन बॉक्स रख। जुगाड़ की गई थैली मैंने इसलिए कहा कि उन बेचारों की इतनी हैसियत कहां कि वो बड़े शो रूम अथवा माॅल से खरीददारी कर सकें।

आंखों में कोई सपना नहीं, बस दो वक्त की रोटी के इंतजाम की व्यवस्था

उन्हीं मेहनतकश कामगारों में कोई महिला आपके घरों में काम करने वाली होती हैं। कभी आपने उनकी आंखों में देखने की कोशिश की है। कोई भाव नहीं। बिल्कुल निर्लिप्त। आंखों में कोई सपना नहीं। बस किसी तरह से दो वक्त की रोटी का इंतजाम हो जाए ताकि बच्चे भूखे न सोएं। काम करना बिल्कुल एक रूटीन की तरह। अभी कुछ और घरों में काम करना है। सुबह सुबह घर से निकल कर आई हैं। बच्चों को भी देखना है। उन्हें भी सुबह कुछ खिलाना है। मरद को भी टिफिन बॉक्स भर कर काम पर भेजना है। अपना क्या है, कहीं किसी सहृदय घर वाले ने चाय पूछ लिया या फिर रात की बची हुई रोटी सामने दे दिया। अपना तो काम बस किसी तरह चल जा रहा है। ना कहने की ना तो हिम्मत है और ना ही कोई वजह। आखिरकार भूख भी तो मुआ कोई चीज होती है। हम तो जानवरों से भी बद्तर हैं। उन्हें भी जब कुछ पसंद नहीं आता है तो मुंह फेर लेते हैं।

सरकारी चीजें समझते नहीं हैं तो शोषण के शिकार भी हैं

हमने शुरू में ही कहा शहर का यह हिस्सा बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहा है। बड़ी बड़ी और ऊंची इमारतों की संख्या बेहिसाब बढ़ती जा रही है। पता नहीं यह सिलसिला कहां जाकर रूकेगा। इमारतों की संख्या बढ़ने के साथ ही साथ मध्यम वर्ग गांव – कस्बों और छोटे शहरों से बाहर निकल रोजगार की तलाश में बड़े शहरों की ओर रुख कर रहा है। आंखों में ढ़ेर सारे सपने लिए हुए। यह हुआ मध्यम वर्ग सपने बहुत देखता है। पहले जो नौकरियां अपने शहर और ज्यादा से ज्यादा अपने राज्य तक ही सीमित थी अब वैश्विक हो चला है। लाज़िमी है उनके साथ ही साथ मेहनतकश कामगारों ने भी गांव – कस्बों और शहरों से निकल महानगरों का रूख किया है। दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं। दोनों ही एक दूसरे को सहारा दे रहे हैं। महिलाओं ने घरों की सफाई और खाना बनाने का जिम्मा संभाला हुआ है तो पुरूषों ने अपनी पैठ अपनी क्षमतानुसार कुशल और अकुशल काम को पकड़ रखा है। बुनियाद हैं वो, हमारी व्यवस्था के,पर चूंकि संगठित नहीं हैं और सरकारी चीजें समझते नहीं हैं तो शोषण के शिकार भी हैं। आसानी से कोई उन्हें बहला फुसला जाता है। इस्तेमाल कर लेता है उनका अपने फायदे के लिए। बड़ों की तो बातें ही कुछ अलग होती हैं। दरअसल उन्हें भूख का सामना नहीं करना होता है।भूख से हटकर वो कुछ सोच पाते हैं, बाकी तो बेचारे पेट की सोचें या सपनों को हकीकत में बदलें।
दुनिया बस यूं ही चलती रहती है। आंखों में हम भी ढेरों सपने सजाए राम राज्य की बातें करते हैं।

✒️ मनीश वर्मा ‘मनु’