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डॉ अरुण तिवारी चिकित्सक को ‘धरती का भगवान’ कहा जाता है।

इस कथन को सही मायने में साबित कर रहे हैं। सेवा भावना के लिए नौकरी छोड़ने वाले डॉ. अरुण तिवारी.बिहार के दूर-दराज इलाकों समेत आसपास के राज्यों के मरीजों का जमावड़ा महेन्द्रू के रानी घाट स्थित एक क्लिनिक पर लगने लगता है।

यह सिलसिला देर शाम तक चलता है। बाहर एक छोटा-सा बोर्ड लगा है- Dr. Arun Tiwari. MBBS, MD. क्लिनिक में एक कमरे के अलावा बरामदानुमा कमरा ही है। इस छोटे से कमरे में चमकती कुर्सियों की जगह सीमेंट का चबूतरा बनाया गया है। कमरा छोटा है। ऐसे में ज्यादातर लोग बाहर खड़े या फिर जमीन पर बैठकर अपनी बारी का इंतजार करते हैं। इंतजार के लिए टीवी आदि की भी व्यवस्था नहीं है। ऐसे में आपस में बात कर समय बिताना पड़ता है। यहां टेलीफोन से भी नंबर नहीं लगता है, ऐसे में आने के सिवाय दूसरा रास्ता भी नहीं है। मुजफ्फरपुर मेडिकल कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर का पद छोड़ डॉ. अरुण तिवारी ने निजी प्रैक्टिस की शुरुआत की थी। सबसे पहले उन्होंने 1987 के आसपास महेन्द्रू रोड पर पोस्ट ऑफिस के सामने क्लिनिक खोला था, तब वह 12 रुपए फी लेते थे। फिलहाल कंसल्टेशन फी 50 रुपए है। सुबह से शाम तक डॉक्टर साहब तीन शिफ्ट में करीब 300 मरीजों को प्रतिदिन देखते हैं। इसके बावजूद हर कोई इत्मीनान से अपनी बारी का इंतजार करता है। यहां किसी को कोई जल्दी नहीं होती है। इस क्लिनिक पर तो जांच के लिए कोई सुविधा है, ही बैठने के लिए लंबी-चौड़ी व्यवस्था। इसके बावजूद हर समय भीड़ जमा रहती है। डॉ. अरुण तिवारी की लिखी दवाएं भी काफी कम कीमत में बाजार में मिलती हैं। डॉक्टर साहब कहते हैं कि मार्केट में कई दवाएं एक रुपए में भी मिलती हैं और दस रुपए में भी। आखिर हम किसी मरीज को दस रुपए की दवा क्यों लिखें, जबकि काम दोनों एक ही तरह करता है। फी कम होने के पीछे उनका अपना तर्क है। कहते हैं कि उनके पास आने वाले मरीज दूर-दूर से हजारों खर्च करके आते हैं। डॉक्टर और मरीज का रिश्ता विश्वास का होता है। ऐसे में अगर वह ज्यादा फीस लेंगे तो भी लोग आएंगे, लेकिन क्या जिसके पास पैसा नहीं है वह इलाज नहीं कराए। डॉ.अरुण कुमार तिवारी का जन्म पटना में 1946 ईस्वी में हुआ था। पिता अंबिका प्रसाद तिवारी का प्रकाशन का बिजनेस था, जबकि माता हेमलता गृहिणी थीं। पढ़ाई-लिखाई सेंट जेवियर और पटना मेडिकल कॉलेज से हुई थी। एमबीबीएस की पढ़ाई साल 1963 से 1969 तक हुई। पिता के बिजनेस में होने के बावजूद डॉक्टरी पेशे में आने के सवाल पर कहते हैं कि कुछ खास याद नहीं है। हां, बचपन में जब भी किसी की तबीयत खराब होने पर हाॅस्पीटल जाना होता था। उसी समय उनके मन में डॉक्टरी पेशे को लेकर क्रेज बना। पीएमसीएच से एमडी तक की पढ़ाई पूरी की। उसके बाद बिहार सरकार के स्वास्थ्य विभाग में नौकरी लगी। सबसे पहले साल 1975 में मुंगेर जिले के चकाई ब्लॉक में नियुक्ति की गई। इसके बाद पीएमसीएच में रेजिडेंट फिजिशियन बने। साल 1982 में पोस्टिंग आईजीआईसी में हुई। इसके बाद उनकी तैनाती असिस्टेंट प्रोफेसर के रूप में श्री कृष्ण मेडिकल कॉलेज अस्पताल (मुजफ्फरपुर) में हो गई। साल 1987 में नौकरी छोड़ प्राइवेट प्रैक्टिस शुरू कर दी।
फीस के बारे में बताते हैं कि पढ़ाई के दौरान से ही वह पीएमसीएच के प्रोफेसर अपने गुरु डॉ. शिवनारायण सिंह के काफी नजदीक रहे। उस दौर में वह 16 रुपए फीस लेते थे। ऐसे में वह उनसे ज्यादा फीस कैसे ले सकता था। वैसे भी ज्यादा फी लेकर क्या करता। इस पैसे से भी काम चल जाता। ज्यादा फी से कुछ और ऐशो आराम के सामान खरीदा जा सकता था, वह इस पैसे में भी गया। पैसे को खाया तो नहीं जा सकता है। परिवार में प|ी सरस्वती ने भी इस जज्बे पर कोई आपत्ति नहीं जताई। बेटी मयूरी की शादी कर चुके हैं और बेटे अंशुमन बिजनेसमैन हैं। इन दोनों की तरफ से भी कभी कम फी को लेकर आपत्ति नहीं आई।
कमपैसे वाले मरीज आने के सवाल पर वह कहते हैं कि ज्यादा पैसे वाले चाहते हैं कि घंटे भर उनकी बकवास सुनी जाए। आखिर जब आपकी एक बात समझकर मुझे मर्ज का पता एक मिनट में चल जाता है, तो फिर मैं क्यों घंटे भर बकवास सुनूं कि दिनभर क्या शेड्यूल रहा। ज्यादा कंसल्टेशन फी देने वालों में अमूमन दो तरह के मरीज होते हैं- एक जो बीमार नहीं होते हैं, उन्हें शक होता है। दूसरे जो दवा चलने तक ही ठीक रहेंगे। ऐसे में उन्हें लगता है कि डॉक्टर ज्यादा देर तक उनकी बात सुनता रहे।