अपवित्र सोच- परिवार और समाज को भी अपनी महती भूमिका का निर्वाह करना होगा
हमारा समाज अपवित्र सोच रखनेवाले कुछ ऐसे इंसान भी रहते हैं जिन्हें समय रहते हम नहीं पाते। जबतक उनका बदसूरत चेहरा सामने आता है तबतक कोई व्यक्ति जान गंवा चुका होता है। ऐसे जघन्य अपराध को रोकने के लिए परिवार के अंदर बच्चों के अच्छे परिवरिश की आवश्यकता पर अधिक बल देने की आवश्यकता है।
शासन और प्रशासन शून्य क्षमाशीलता की नीति तो रखती है, लेकिन अपराध के नये-नये तरीक़ों के कारण आसूचना [Intelligence] का स्तर भी बेहतर होना चाहिए ताकि घटनोत्तर अनुसंधान [Investigation] की आवश्यकता नहीं पड़े और अशोभनीय कृत्य को घटित होने से पूर्व ही रोका जा सके।
हालाँकि आसूचना को बेहतर बनाने के लिए नित नये शोध और अनुसंधान हो रहे हैं, लेकिन परिवार और समाज को भी अपनी महती भूमिका का निर्वाह करना होगा। घटनोत्तर अनुसंधान द्वारा अपराधी की पहचान और उसके लिए सज़ा का प्रावधान अपराध ख़त्म करने का मुक्कमल उपाय नहीं है, क्योंकि अमानवीय घटनायें अब अपवाद नहीं हैं, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या बन चुकी है। इसलिए हर हाल में परिवार के अंदर बच्चों की अच्छी परिवरिश, अच्छे परिवेश, प्राथमिक स्तर के विद्यालयों में संस्कारगत शिक्षा तथा योग्यतानुसार रोज़गार के लिए नये-नये अवसर तलाशने की ओर ध्यान देना चाहिए। साथ ही किसी भी प्रकार की अमानवीय हरक़त को रोकने के लिए उसकी प्रारंभिक स्थिति में ही परिवार, समाज, शासन और प्रशासन सबको एक साथ मिलकर प्रतिकार करना होगा।
भारत एक भावना प्रधान देश है जहाँ परदा, परिधान और परहेज़ को बहुत ही सम्मान के साथ एवं ऊँचाई से देखा जाता है, लेकिन अफ़सोस के साथ कहना पड़ता है कि संवेदनात्मक ज्ञान एवं ज्ञानात्मक संवेदना, विचारणा और परिवार के स्तर से प्राप्त होनेवाले संस्कार को आत्मसात करने के अभाव में कुछ व्यक्ति स्थापित लोक-मान्यताओं, मनबंध को ताक़त देनेवाली परंपराओं तथा प्राचीन दार्शनिकों के चिंतन एवं दर्शन को नज़रअंदाज़ कर बौद्धिक भटकाव का शिकार हो रहे हैं। ऐसे व्यक्ति परिवार और समाज के कुछ कमज़ोर और नकारात्मक पक्ष के साथ खड़े होकर उसके सुंदर और सकारात्मक पक्ष को धराशायी करते जा रहे हैं।
उन्हें यह जानना चाहिए कि अपने लिए अवसर तलाशने में किसी भी पक्ष का प्रतिशोधात्मक रूप से संवाद करना कहीं-न-कहीं पारस्परिक प्रतिबद्धता को खोने जैसा है। साथ ही विचारों में भटकाव तथा पृथक-पृथक विचारधाराओं में मान्यता रखने के कारण कभी-कभी हमारे अंदर हीन ग्रंथियाँ इतनी अधिक सक्रिय अवस्था में होती हैं कि हमारा स्वाभिमान अहंकार का रूप ले लेता है और हम अशोभनीय एवं लोकनिंदनीय कृत्य कर बैठते हैं। हमारी कुछ मुरादें पूरी न होने पर हम आत्मशोधन करने के बज़ाय दूसरों पर दोषारोपण करने से खुद को रोक नहीं पाते। हमें यह समझना चाहिए कि न तो हम अंतिम सत्य हैं और न ही हमारे विचार एवं हम जिस विचारधारा में विश्वास रखते हैं वही अंतिम सत्य है। अतः अपने अंदर छुपे हुए दोष को देखने का साहस और प्रयास करना चाहिए, क्योंकि स्वयं को दोषी नहीं मानना दुनिया का सबसे बड़ा दोष है।
डॉ. जी. पी. सिंह ‘आनन्द’
अतिथि संपादक