राज्यविविध

अमित शाह ने ममता बनर्जी के किले में लगाई सेंध, क्या अकेली पड़ जाएंगी ममता बनर्जी?

क्या ‘बंगाल की शेरनी’ के नाम से मशहूर तृणमूल कांग्रेस अध्यक्ष और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अपने राजनीतिक करियर के सबसे कठिन दौर से गुजर रही हैं?

यूं तो ममता का पूरा करियर ही चुनौतियों और संघर्ष से भरा रहा है. लेकिन अब अगले विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी की ओर से मिलने वाली चुनौतियों और पार्टी में लगातार तेज होती बगावत को ध्यान में रखते हुए राजनीतिक हलकों में यह सवाल पूछा जाने लगा है.

बंगाल दौरे के पहले दिन अमित शाह ने धमाकेदार एंट्री की. कल 19 दिसंबर का दिन बंगाल में बड़े सियासी घटनाक्रमों से भरा रहा. गृह मंत्री अमित शाह के पश्चिम बंगाल दौरे पर पहुंचते ही वहां की राजनीति में बड़ा बदलाव हुआ. इस बदलाव से सिर्फ ममता बनर्जी की टीएमसी को ही नहीं, बाकी विपक्षी पार्टियों को भी बड़ा नुकसान हुआ है. टीएमसी, कांग्रेस और सीपीआई के कई बड़े नाम कल भाजपा में शामिल हो गए. इनमें सबसे खास है, टीएमसी से भाजपा में आए शुवेंदु अधिकारी का नाम, जो कल अमित शाह की रैली में भी मौजूद थे और उन्हें गृह मंत्री के बगल में बैठने के लिए कुर्सी भी दी गई थी. शुवेंदु अधिकारी के अलावा टीएमसी, सीपीआई, सीपीआई एम और कांग्रेस के 9 विधायकों व एक सांसद ने भी बीजेपी का दामन थामा है.

पश्चिम बंगाल में अगले साल विधान सभा चुनाव होने हैं और चुनाव से पहले भाजपा ने ममता बनर्जी को तगड़ा झटका दिया है. साल 1998 में पार्टी की स्थापना के बाद ये पहली बार है जब टीएमसी (TMC) में ऐसी फूट पड़ी और पार्टी इतनी तेजी से बिखरी है. कल रैली को संबोधित करते हुए गृह मंत्री अमित शाह ने ये तक कह दिया था कि बंगाल में परिवर्तन की लहर है और चुनाव आते आते ममता बनर्जी अकेली रह जाएंगी.

यह बात दीगर है कि कांग्रेस की अंदरूनी चुनौतियों से जूझते हुए अलग पार्टी बना कर लेफ्ट से दो-दो हाथ कर चुकीं ममता इन चुनौतियों से घबरा कर पीछे हटने की बजाय इनसे निपटने की रणनीति बनाने में जुट गई हैं. पार्टी में किसी नेता की इतनी हिम्मत नहीं थी कि उनके किसी फैसले पर अंगुली उठा सके. लेकिन अब बीते तीन-चार वर्षों में उनकी पकड़ कुछ कमजोर हुई है.

लोकसभा चुनावों के नतीजों के बाद ममता ने चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवाएँ ली थीं. लेकिन उनका ये पासा भी अब तक उल्टा ही पड़ता नजर आ रहा है. दवा के तौर पर आए प्रशांत पार्टी के लिए मर्ज बनते जा रहे हैं. ऐसा लगता है कि कई नेताओं के पार्टी छोड़ने और पार्टी के भीतर फैलते असंतोष के पीछे मूल कारण प्रशांत किशोर ही बन गए हैं. लेकिन बावजूद इसके ममता का भरोसा उन पर जस का तस है.

बीजेपी ने अगले चुनावों में जीत के लिए अपनी पूरी ताकत और तमाम संसाधन बंगाल में झोंक दिए हैं. आधा दर्जन से ज्यादा केंद्रीय नेताओं और मंत्रियों को बंगाल का जिम्मा सौंप दिया गया है. दूसरी ओर, प्रशासनिक मोर्चे पर भी ममता की मुश्किलें लगातार बढ़ रही हैं. बीते सप्ताह बीजेपी अध्यक्ष जेपी नड्डा पर हमले के बाद एक ओर सरकार से रिपोर्ट मांगी गई तो दूसरी ओर मुख्य सचिव और पुलिस महानिदेशक को दिल्ली तलब किया गया. हालांकि केंद्र के दबाव के बावजूद ममता ने उनको दिल्ली नहीं भेजा. उसके बाद तीन वरिष्ठ आईपीएस अफसरों को जबरन केंद्रीय डेपुटेशन पर जाने का निर्देश दिया गया है.

लेकिन ‘घर के ही चिराग से घर में लगी आग’ की तर्ज पर ममता के लिए सबसे बड़ी मुश्किल ऐसे नेताओं ने खड़ी की है जो कल तक उनके सबसे करीबी लोगों में शुमार किए जाते थे. इनमें सबसे पहले तो उन मुकुल रॉय ने बीजेपी का दामन थामा था जिनको राज्य के खासकर ग्रामीण इलाकों में टीएमसी की जड़ें जमाने का वास्तुकार माना जाता है. उसके बाद भी बीते दो साल के दौरान बैरकपुर के ताकतवर नेता और अब बीजेपी सांसद अर्जुन सिंह समेत इक्का-दुक्का नेता बगावती अंदाज अपनाते रहे. लेकिन अब विधानसभा चुनाव जब सिर पर आ गए हैं, थोक भाव में मची भगदड़ ने एक गंभीर समस्या पैदा कर दी है. इनमें मेदिनीपुर इलाके के बड़े नेता शुभेंदु अधिकारी समेत कई विधायक शामिल हैं.

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष अधीर रंजन चौधरी कहते हैं, “इतिहास खुद को दोहराता है और अब ममता को उनकी ही भाषा में जवाब मिल रहा है. कांग्रेस के गढ़ रहे मालदा और मुर्शिदाबाद में कई विधायकों और नेताओं को झूठे मामलों में फंसाने की धमकी देकर टीएमसी में शामिल होने पर मजबूर किया गया था. उस समय दल बदलने वाले कई लोग अब बीजेपी में चले गए हैं.”

हालांकि इस भगदड़ के बावजूद ममता बहादुरी से मोर्चे पर डटी हैं. भगदड़ से उपजी परिस्थिति पर विचार करने और इसकी काट की रणनीति तैयार करने के लिए उन्होंने शुक्रवार शाम को अपने आवास पर शीर्ष नेताओँ के साथ आपात बैठक की. इस बैठक में ममता का कहना था, “हमारी ताक़त आम लोग हैं, नेता नहीं. दलबदलू नेताओं के पार्टी छोड़ने से कोई फर्क नहीं पड़ेगा. ऐसे लोग पार्टी पर बोझ थे. आम लोग ही उनके विश्वासघात की सजा देंगे. बंगाल के लोग विश्वासघातियों को पसंद नहीं करते.”