सम्पादकीय

बेफिक्री का आलम, रविवारीय में आज पढ़िए नागपुर की यादें

राष्ट्रीय प्रत्यक्ष कर अकादमी, नागपुर – अचानक से हम सभी वैसी दुनिया में फिर से आ गए थे, जिसे हम सभी ने काफी समय पहले जी लिया था। एक लंबे अरसे के बाद, लौट कर उसी दुनिया में वापस आना, फिर से उसी जिंदगी को जीना, एक अलग ही अहसास, एक अलग ही अनुभव रहा। सिर्फ और सिर्फ उम्र का ही

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

तो फ़र्क था। अपनी गतिविधियों से हमने उसे भी पीछे छोड़ने की पुरजोर कोशिश की। कुछ हद तक सफल भी हुए आखिरकार, हम सभी औसतन पच्चीस वर्ष के युवा थे जिनमें से हर एक के पास लगभग पच्चीस वर्षों का अनुभव था।
हम सभी जैसे उसमें रम से गए थे। बेफिक्री के आलम में आ गए थे हम सभी। बचपन में हाॅस्टल में बिताए गए दिन फिर से हमारे सामने थे। एक एक दृश्य मानों चलचित्र की तरह सामने से गुजर रहे थे।
ठीक है, हम सभी एक ही सर्विस और लगभग एक ही उम्र वय वाले लोग थे, कुछ लोगों को छोड़कर। देश के अलग अलग कोनों से आने वाले और भिन्न-भिन्न भाषाएं बोलने वाले। शुरुआत में ऐसा लगा सामंजस्य बिठाना शायद थोड़ा मुश्किल हो, पर कुछ ही समय में हम सभी ऐसे हो गए कि पता लगाना मुश्किल हो गया कि कौन क्या है, और कहां से आया है। यही तो खुबसूरती है हमारे हिन्दुस्तान की जहां एक हिन्दुस्तान के अंदर कई हिन्दुस्तान बसते हैं फिर भी हम सभी हिन्दुस्तानी हैं।अब जैसे जैसे जाने का समय पास आता जा रहा है, मन में एक अजीब सी अनुभूति ने घर कर लिया है। समझना मुश्किल हो पा रहा है। प्रतिक्रिया क्या हो? हम सभी बिल्कुल नि: शब्द हैं। जब आए थे तब सशंकित थे। मन आने वाले समय के लिए एक अज्ञात सी आशंका से ग्रस्त था। आगे क्या होगा?
इतने सारे लोगों के साथ रहने का शायद सभी के जीवन का यह एक पहला मौका था। जैसे जैसे समय बीतता गया हम सभी सहज होते गए और हनीमून ( भारत दर्शन ) ने तो हमें बिलकुल ही सहज बना दिया। वर्जनाएं धीरे धीरे टूटती गई। हनीमून शब्द शायद आपसे में कईयों को अटपटा लग सकता है, पर शब्द पर मत जाएं। शब्द में निहित भावनाओं को समझें। हनीमून पर जाने का मतलब मोटे तौर पर एक दूसरे के साथ भावनात्मक और मानसिक तौर पर मजबूती के साथ जुड़ना होता है। एक दूसरे को समझना होता है ताकि आगे की जिंदगी में आपके कदम एक दूसरे के साथ कदमताल कर सकें। यहां भी कुछ कुछ ठीक वैसा ही हुआ। शुरूआती मतभेदों से उबरने के साथ ही साथ हमारे कदम एक दूसरे के साथ लयबद्ध तरीके से कदमताल करने लगे।सभी परिवार के एक सदस्य की तरह लगने लगे। एक दूसरे की कमी खलने लगी। पता नहीं यहां से जाने के बाद क्या होगा। निश्चित तौर पर कुछ दिन अटपटा सा लगेगा। यादें आएंगी सबकी, पर समय सबसे बड़ा मरहम होता है। समय बीतने के साथ ही साथ सब कुछ सामान्य होने लगता है।
हनीमून से वापस आने के कुछ दिनों तक हनीमून की खुमारी बनी रही। फिर से ज़िंदगी अपने पुराने ढर्रे पर लौट आई थी। फिर से वही समय पर उठना। सुबह उठते ही दिनचर्या का शुरू होना आदि।
अब तो कुछ ही दिन बचे हैं वापसी के। मन दोराहे पर खड़ा है। एक तरफ परिवार जिससे आप और हम शायद सभी इतने दिनों तक कभी अलग नहीं हुए थे और दूसरी तरफ एक वो परिवार जो अभी अभी बना था । उससे अलग होने की चिंता सता रही है।
इंसान हमेशा से Moment Of Inertia से प्रभावित होता रहा है। जहां रहता है वहीं का होकर रह जाना चाहता है, पर ऐसा कभी संभव हो पाया है। ज़िंदगी तो हमेशा से चलायमान होती है।
वापसी तो बिल्कुल से वतन वापसी जैसी लग रही है। जहां हम रह रहे हैं वहां के सभी लोगों ने हमें भरपूर प्यार और स्नेह दिया, पर वीज़ा की अवधि अब समाप्त हो रही है और उसके ना तो बढ़ने की उम्मीद है और ना ही हम अर्जी लगाने जा रहे हैं।
हां! इतनी सारी बातों के बीच एक बात कहनी तो रह ही गई। हममें से कई लोग यह मुगालता पाले बैठे थे – हमारे बिना दुनिया कैसे चलेगी। घर का कामकाज कौन करेगा। भ्रम में जी रहे थे वो लोग। आपके रहने ना रहने से समय का पहिया नहीं रूकता है और यहां भी नहीं रूका। आगे के लिए समझ लें। ज़िन्दगी आसान हो जाएगी।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’

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