सम्पादकीय

सही क्या और गलत क्या ? रविवारीय में पढ़िए “ये सिर्फ है नजरिया का फर्क”

बचपन से ही हम अपने बड़ों से सुनते आ रहे हैं, फलां चीज़ सही है, फलां ग़लत है। यह पाप है और यह पुण्य है। नहीं समझ पा रहे हैं। हम बड़ी ही दुविधा में हैं। आखिर सही क्या है और गलत क्या है ? आपको लगता है गलत और सही कभी वस्तुनिष्ठ हो सकते हैं। मुझे तो ऐसा कतई नहीं लगता है। कोई चीज अगर आपके लिए सही है तो दूसरे के लिए गलत हो सकती है। कहीं सूरज अस्त होता है तो

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

कहीं उदय होता है। सृष्टि की रचना ही कुछ इस प्रकार हुई है कि हम चाहकर भी किसी एक पहलू को देखते हुए निर्णय नहीं ले सकते हैं।
दोनों को ही हमें हमेशा सापेक्ष में समझना पड़ेगा। अकाउंट्स में आप देखते हैं डेबिट और क्रेडिट। आप क्या पाते हैं – अगर किसी का डेबिट हो रहा है, तो कहीं किसी का क्रेडिट भी हो रहा है। उसी प्रकार अच्छा – बुरा, सही – गलत कुछ भी नहीं है। हमारे ख़ुद के देखने का बस नजरिया है। हमें जो अच्छा लगता है, जो हमारे अनुकूल होता है, हम अक्सर उसकी ही बातें करते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी सभी ग़लत है।
भगवान् ने हमें दो आंखें दीं हैं, आखिर क्यों? एक आंख से भी हमारा आपका काम चल सकता था। दो आंखें आपको चीजों को समग्र रूप से देखने के लिए मिलती हैं। आप किसी भी चीज का त्रि-आयामी पिक्चर देख सकते हैं , जो एक आंख से संभव नहीं है। तो छोड़ दो ना मुझे! समझने दो दुनिया को। क्यों अपनी विचारधारा हम पर थोप रहे हो।
हमें बताया गया कि एक पुरुष और महिला कभी दोस्त नहीं हो सकते हैं। फलां काम लड़कों के लिए है। फलां काम सिर्फ लड़कियां ही कर सकती हैं। क्या बकवास है भाई ? बातें करते हैं जेन्डर सेंसिटाइजेशन की, बातें करते हैं बराबरी की, फिर यह सब बकवास की बातें। घर में दो लड़कियां हो गई तो लड़के चाहिए। आखिर वंश भी तो चलना चाहिए ! समझ में नहीं आता है, आखिर हमें चाहिए क्या? थोड़ा अपना दायरा बढ़ाएं। दायरे से बाहर आ कर दुनिया देखें तब हम शायद समझ सकेंगे कि हम किस युग की बातें कर रहे हैं। कौन सी दुनिया में रह रहे हैं। अपनी आस-पास की दुनिया को देखें। कोई भी ऐसा काम आप बता दें जो एक्सक्लूसिव हैं किसी एक के लिए। सभी कंधे से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं।
हमारी जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है। तमाम तरह की परेशानियां हमें घेर रही हैं और हम हैं कि इस पर बात ही नहीं करना चाहते हैं। हमारी प्राथमिकता में ही नहीं है। दूसरों के घर की चीजें हमें अच्छी लगती हैं। हम चर्चा करते हैं उनकी, पर अपने यहां हम उसे ला नहीं पा रहे हैं। आखिर हम अटके पड़े हैं। जरा बॉक्स से बाहर निकल कर, थोड़ा सोचें हम। संकीर्ण मानसिकता से बाहर निकल कर थोड़ा बाहर की दुनिया घूम आएं तब शायद हम तुलनात्मक रूप से किसी भी चीज को देख पाएंगे और समझ पाएंगे अच्छा क्या है और बुरा क्या है।

✒️ मनीश वर्मा’मनु’