सम्पादकीय

बंद कमरों में बारिश का आनंद कहां, रविवारीय में आज पढ़िए “भींगा-भींगा मौसम”

रात से ही बादलों का गरजना जारी था। बादल रूक रूक कर, गरज-गरज कर बरस रहे थे। सुबह से ही मौसम भीगा-भीगा सा था। कल शाम में भी झींगुरों की आवाज और मेंढ़क की टर्र-टर्राहट ने इसका आगाज दे दिया था। आसमान पुरी तरह से काले काले बादलों से घिरा हुआ था। ठंडी हवाएं चल रही थीं। मौसम बहुत ही सुहावना हो गया था। वातावरण इतना खूबसूरत, क्या बताएं उसकी छटा देखते ही बनती थी।

हम अपने कार्यालय जाने के लिए निकले ही थे। अचानक से

मनीश वर्मा,लेखक और विचारक

धर्मपत्नी ने थोड़ा रोमांटिक होते हुए कहा- कहां इस मौसम में ऑफिस ! आज तो इस मौसम में भीग जाने को जी करता है।

मुझे अचानक से कालिदास की रचना ‘मेघदूत’ की याद आ गई। जब यक्ष नरेश कुबेर ने अपने राज्य अलकापुरी से एक यक्ष को निष्कासित कर दिया था। यक्ष अलकापुरी से निष्कासन के पश्चात रामगिरी पर्वत पर रह रहा था। अपनी प्रेमिका के पास संदेश भिजवाने का उसके पास कोई जरिया नहीं था। तब बारिश के मौसम में उमड़ते घुमड़ते बादलों को देख अपने प्रेयसी के विरह में यक्ष ने मेघ को अपना दूत बनाकर अपनी प्रेमिका के पास प्रणय संदेश भिजवाया था। यक्ष खुद तो आ नहीं सकता था। मेघदूत की रचना में कालिदास ने यक्ष और उसकी विरह में व्याकुल प्रेमिका के प्रेम को ही अभिव्यक्त किया था।

वाकई आज बारिश में भीग जाने को जी करता है

बारिश का मौसम हो और आप घर में बैठे रहें। सड़कों पर निकल थोड़ा भीगे नहीं। ऐसा कैसे हो सकता है भला। बंद कमरों में बारिश का आनंद कहां।

ठंड में पुरे कपड़े पहन और पॉकेट में दोनों हाथों को डाल ठंड का मजा नहीं लिया तो फिर क्या किया। नैसर्गिक सौंदर्य को निहारने का मजा ही कुछ और है। कुछ-कुछ वैसा ही आनंद बारिश में भीगने का है।

बारिश के मौसम में प्रकृति की खूबसूरती अपने पूरे शबाब पर होती है। मन तो बस करता है निहारता ही रहूं। आंखें कहीं और होती हैं और
दिल कहीं और। बस खो सा जाता हूं। प्रकृति की सुंदरता में डूब जाने को जी करता है। वाकई वर्षा ऋतु में प्रकृति जितनी खूबसूरत दिखती है, शायद ही कभी और दिखे।

कुछ धुंधली सी यादें हैं। यादों के पन्ने खुलते जा रहे हैं। कोशिश कर रहा हूं कि पूरा पढ़ सकूं।

आज बारिश में भीग जाने को जी करता है

जी हां! काश वो समय जो हम पीछे छोड़ आए हैं, वो फिर से सामने आकर कहे – चलो आज फिर से बारिश में भीगते हैं। फिर से कागज की कश्तियां बनाते हैं। उन्हें आंगन में जमी हुई बारिश के पानी में तैरते हुए देखते हैं।

चलो, आज फिर से सड़कों पर बने गड्डों और उसमें बारिश की पानी में पैरों से पानी उछालकर छपाक-छपाक कर अपने बचपन को याद करते हैं। बारिश के मौसम में सड़कों पर गाड़ियों के जाने पर पानी के छींटों से खुद को बचाते हुए चलते थे। कहां इस बात की चिंता थी कि कपड़े गन्दे हो जाएंगे। जूते भीग जाएंगे। घर आने पर डांट पड़ेगी। कहां इन सब बातों की चिंता थी। सब कुछ से परे बिंदास जीवन ।

याद करते हैं वो दिन जब सुबह-सुबह खिसकती हुई घड़ी के कांटे हमारा रास्ता नहीं रोकते थे।

चलो, फिर से याद करते हैं, बारिश के पानी से नहाए हुए पेड़ पौध रों को।

देखो ना! आज नहाने के बाद ये पौधे कितने खुबसूरत लग रहें हैं। हां, काफी दिन हो गए थे इन्हें नहाए हुए। सभी इंतजार कर रहे थे। क्या पेड़ पौधे, क्या पशु-पक्षी सभी को इंतजार था। हम भी तो इंतजार ही कर रहे थे।

देख रहे हो ना! सभी के मुरझाए हुए चेहरे कैसे खिल उठे हैं। प्रकृ ति ने भी मानों अपनी सारी खुबसूरती बिखेर दी है। सभी बस उसमें सराबोर हैं। प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है। पर अब इंतजार में पहले जैसी बातें कहां। अब तो बारिश का इंतजार बेकरार कर देती है। अब इंतजार कुछ लंबा हो चला है। किसी और ने नहीं हमने ही तो उनका रास्ता रोक रखा है। कहीं सड़कों के निर्माण के नाम पर रोक रखा है तो कहीं पेड़ों को काटकर रोक रखा है। मौसम बिल्कुल ही असंतुलित हो चला है। कहीं अतिवृष्टि है तो कहीं अनावृष्टि। विकास के नाम पर पर्यावरण का विनाश जारी है। किसी को फर्क नहीं पड़ता है। कुछ तो बेचारे नादान हैं। उन्हें मालूम ही नहीं कि वो क्या कर रहे हैं। उन्हें क्या कहा जाए जो सब कुछ जानते हुए पर्यावरण के दुश्मन बने बैठे हैं। छोटी-छोटी नदियों का अस्तित्व खत्म होता जा रहा है। पहाड़ के पहाड़ गिराए जा रहे हैं। जंगल के जंगल साफ किए जा रहे हैं। कोई समझने वाला नहीं। कोई देखने वाला नहीं। संभल जाएं। कीमत तो हमें ही चुकानी है। हमारे आने वाली पीढ़ी को चुकानी है। पर्यावरण संरक्षण एक बहुत बड़ी चुनौती है हमारे सामने।

‘कहीं ऐसा ना हो आने वाले समय में हम अपने बच्चों को आज की बारिश की विडियो दिखाएं। बच्चों से कहें, देखो बच्चों ऐसी होती है बारिश

✒️ मनीश वर्मा’मनु’