सम्पादकीय

भारत में महिलाओं को अर्धांगिनी का दर्जा, अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

हम जैसे ही विकसित देशों और ख़ासकर पश्चिमी देशों की बातें करते हैं , हमारे ज़ेहन में उस देश के बारे में, वहां के जगहों के बारे में, वहां के लोग, जीवन शैली, शिक्षा, संस्कृति आदि के संदर्भ में एक निहायत ही खुबसूरत सी तस्वीर उभरकर सामने आने लगती है। हम कल्पनाओं के सागर में गोते लगाने लगते हैं। ऐसा लगता है, हम कहां हैं और वो कहां। हम तुलनात्मक हो जाते हैं। हमें

मनीष वर्मा,लेखक और विचारक

अपनी चीजें , अब अच्छी नहीं लगने लगती हैं। पर क्या वास्तव में हम, जो यहां बैठकर, कुछ पढ़कर और कुछ लोगों से जानकर जो एक काल्पनिक तस्वीर बनाते हैं, वो सच्चाई के कितने पास है, हम जान पाते हैं ? शायद नहीं! यह एक प्रकार की मृग मरीचिका है। हम भ्रम की दुनिया में जीते हैं।
दूर का ढोल हमेशा से ही सुहावना रहा है। हम कुछ नहीं कर सकते हैं। मानव सोच की प्रकृति ही कुछ ऐसी है। हम पश्चिमी देशों के पीछे भाग रहे हैं और वो हमारी सनातन धर्म और संस्कृति एवं सभ्यता के गूढ़ रहस्यों को जानने में हमारे यहां की गलियों की ख़ाक छान रहे हैं। कभी उन्होंने हमारे बारे में कहा था
” भारत संपेरों का देश है”
आज़ हमारे बारे में उनकी धारणा बड़ी तेजी से बदलती जा रही है। आज़ के भौतिकवादी युग में उन्हें भारतीय दर्शन और आध्यात्म काफ़ी सुकून दे रहा है। लोग खींचे चले आ रहे हैं।
खैर! ताज़ा प्रसंग अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस का है। कहने को महिलाओं के सम्मान, उनकी प्रतिष्ठा और उनके प्रति प्रेम , समर्पण और विश्वास को दर्शाता यह दिवस। पर क्या हमने कभी सोचा ? कभी जानने की कोशिश की ? आखिर वजह क्या रही है इस दिवस को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की। कुछ तो बात रही होगी।
हम तो महिलाओं को केन्द्र में रख एक कार्यक्रम आयोजित कर लिए और बस इतिश्री । फ़िर अगली मर्तबा सोचेंगे अब क्या करना है। इस बार की खानापूर्ति तो हमने कर लिया। औपचारिकताएं पूरी कर ली।

चलिए कोशिश करते हैं जानने की, आखिर हम क्यों ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ‘ मनाते हैं। क्या ख़ास है! ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस ‘ की शुरुआत बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में हुई थी। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि आज़ जिस देश को पुरा विश्व अपना नेता मानता है। जो अघोषित तौर पर और निर्विवाद रूप से विश्व की सर्वोच्च शक्ति है। एक प्रजातांत्रिक देश है, जहां प्रजातंत्र की जड़ें काफ़ी मज़बूत हैं। जिसने अपना लिखित संविधान सन् 1787 ईस्वी में ही बना लिया था। उस देश में, बड़े ही दुर्भाग्य की बात है महिलाओं को मतदान का अधिकार सन् 1920 ईस्वी में जाकर मिला और वह भी काफ़ी जद्दोजहद और आंदोलन के पश्चात। और सुनिए, बात यहीं ख़त्म नहीं होती है। मतदान का यह अधिकार वहां रहने वाले अश्वेतों को नहीं था। यह उन्हें यानी कि अश्वेतों को सन् 1964 ईस्वी में जाकर मिला।
वाकई दूर की थाली में पड़ा लड्डू कुछ ज्यादा ही बड़ा दिखता है 

आइए अब हम आपको पुराने ग्रीस @ एथेंस और रोमन गणराज्य की ओर लिए चलते हैं, जहां बहुत पहले से ही लोकतांत्रिक व्यवस्था चल रही थी। पर, वहां भी सन् 1952 ईस्वी में जाकर महिलाओं को मतदान का अधिकार मिला और वह भी एक लंबी लड़ाई लड़ने के बाद। आस्ट्रेलिया ने सन् 1906, तो फ्रांस और इटली ने सन् 1939 के बाद महिलाओं को मतदान का अधिकार दिया। पुराना सोवियत संघ, कनाडा, जर्मनी आदि देशों ने बहुत जद्दोजहद के बाद प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध के बीच महिलाओं को अपने यहां मतदान का अधिकार दिया।जरा सोचिए, मनन करने की बात है। हम अपने देश की तुलना अन्य विकसित देशों से करते हैं।
पर भारत ने अपने यहां तो महिलाओं को मतदान का अधिकार संविधान के बनते ही दे दिया था। लगभग दो सौ वर्षों की गुलामी के बाद जैसे ही हमने अपना संविधान बनाया महिलाएं हमारे यहां अपनी सरकारें चुनने लगीं।
हमें तो अपनी ताक़त का भान ही नहीं है।बस दूसरों की चीजें देखकर तुलनात्मक हो जाते हैं।
“कस्तूरी कुंडली बसै मृग ढूंढें बन माहि”

सनातन काल से हमारे यहां की महिलाएं एक नेतृत्वकर्ता की भूमिका में हैं।
जरूरत आ पड़ी है हमें हमारी संस्कृति और सभ्यता पर अभिमान करने की। हमने हमेशा पुरे विश्व को रास्ता दिखाया है। आज़ भी हम विश्व गुरु बनने की राह पर हैं। जटिल से जटिल मामलों पर भी पुरे विश्व की नज़र हमारे नजरिए पर रहती है। भारत क्या सोचता है। उसका दृष्टिकोण क्या है।

अपने धर्म ग्रंथों का अध्ययन करें हम। उपनिषदों को जानें। तभी शायद हम समझ पाएंगे कि हमारे लिए यह अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस बहुत मायने नहीं रखता है। हम तो सनातन काल से ही महिलाओं को यथेष्ठ सम्मान देते आएं जिसकी वो हकदार हैं। हमने उन्हें अर्धांगिनी का दर्जा दिया है। शायद ऐसा विश्व में कहीं नहीं है। हमारे लिए महिलाएं हमेशा से आदरणीय और पूजनीय रही हैं चाहे वो ममतामई मां हो, वात्सल्य से पूर्ण बहन हो या बेटी हो। हमने हमेशा उन्हें सम्मान दिया है।
जब ब्रह्मांड की और सृष्टि की रचना हुई। कब, कहां और कैसे उस ओर नहीं जाना है। हमने रचयिता को ईश्वर नाम दिया है। ब्रह्मा जी को हमने इस ब्रह्माण्ड और सृष्टि का रचयिता माना है। हमने अपने रचयिता को देखा नहीं है। शायद हममें से किसी ने भी नहीं देखा है। हमारी आस्था है हमारा विश्वास है। कोई सवाल जवाब नहीं। किसी भी प्रकार का कोई तर्क कुतर्क नहीं।
तो जब रचयिता ने सृष्टि के साथ ही साथ मानव की रचना की तो उन्होंने सृष्टि आगे चले इस बात का ध्यान रखा और लैंगिकता की बात की। शायद उस वक्त पुरुष और महिलाओं के दरम्यान बराबरी और गैरबराबरी वाली बात नहीं थी। सृष्टि को आगे बढ़ाने और चलाने के लिए पुरुष और महिला की अवधारणा उस वक्त शायद आई होगी। यह तो हम मनुष्यों की देन है जिसने सभी चीजें बांट कर रख दी है। ना ही पुरुष हर जगह शक्तिशाली है और ना ही महिलाएं कमजोर। बस देखने का अपना अपना एक नजरिया है।
देखने का नज़रिया बदलना होगा। चीज़ों को सापेक्ष रूप में देखें। वस्तुनिष्ठ तरीके से देख कर आप उचित निर्णय नहीं ले पाएंगे।
‘ अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस ‘ की बात हो रही है और हम चाहते हैं कि बंगाल में पुनर्जागरण के भावना की प्रतीक, भारतीय समाज की एक सशक्त महिला रानी रसोमणि @ रानी मां ( जी हां आदर और सम्मान के साथ लोग उन्हें रानी मां कह कर ही संबोधित करते थे) का जिक्र ना करें ऐसा तो हो ही नहीं सकता है। तो आइए आज हम आपको भारत की एक वीरांगना रानी रासमणि के जीवन चरित्र से रूबरू कराने की कोशिश करते हैं जिनके बारे में आप जितना जानने की कोशिश करेंगे, कम ही होगा।
रानी रासमणि – रानी रासमणि का जन्म 26 सितंबर 1793 में बंगाल में हुआ था। सुन्दरता की प्रतिमूर्ति थीं वो। अप्रतिम सौंदर्य की मालकिन।
अल्पायु में ही उनका विवाह कलकत्ता के जानबाजार के मशहूर और धनी जमींदार बाबूराज चंद्र दास जिनकी पहली पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी, उनके साथ हुआ था। पर, यह साथ बहुत लंबा नहीं था।
पति की मृत्यु के पश्चात रानी ने पति के कारोबार और जमींदारी की जिम्मेदारी संभालने के बाद सामाजिक एवं लोक कल्याणकारी योजनाओं में खुलकर काम करना शुरू किया। अपनी सूझबूझ और दूरदर्शिता की वजह से रानी ने पति के कारोबार और जमींदारी को बखूबी संभाल लिया था। अपने सामाजिक और लोक कल्याणकारी कार्यों की वजह से कई बार रानी और तत्कालीन ब्रिटिश शासन के बीच मतभेद हुआ । बात कोर्ट कचहरी तक पहुंची,पर जन साधारण के बीच व्यापक समर्थन और सूझबूझ की वजह से हर बार जीत रानी की ही होती थी।
रानी रासमणि ने अपने लोक कल्याणकारी कार्यों एवं योजनाओं के माध्यम से जन मानस के बीच काफी प्रसिद्धि अर्जित की थी। उनकी छवि एक जनहितैषी ज़मीन्दार की थी। तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए रानी ने कलकत्ता के सुवर्णरेखा नदी से पुरी तक एक सड़क का निर्माण करवाया था। इसके अलावा, कलकत्ता के निवासियों के लिए, उन्होंने केन्द्रीय और उत्तर कलकत्ता में हुगली के किनारे बाबूघाट, अहीरटोला घाट और नीमतला घाट का निर्माण करवाया था, जो आज भी कोलकाता के सबसे प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण घाटों में से एक हैं।
अपने स्थापना के दौर में, इम्पीरियल लाइब्रेरी (वर्तमान में भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय, कोलकाता) एवं हिन्दू कॉलेज (वर्तमान में प्रेसिडेन्सी विश्वविद्यालय, कोलकाता) को रानी ने वित्तीय सहायता प्रदान किया था ।
लोगों का कहना है कि कलकत्ता का मशहूर विश्व प्रसिद्ध ईडन गार्डन स्टेडियम भी रानी के द्वारा दान में दी गई जमीन पर ही बना है। रानी के पति बाबू राज चंद्र दास ने हुगली नदी के पास स्थित अपने बड़े बगीचे ‘ मार बागान ‘ को उस वक्त के वायसराय लॉर्ड ऑकलैंड एडेन और उनकी बहन एमरी ईडन को अपने किसी अहसान के बदले दे दिया था।
अब हम जानने की कोशिश करते हैं उनके द्वारा बनवाए गए एक अनमोल कृति के बारे में।
रानी ने हुगली नदी के किनारे देवी भवतारिणी के भव्य मंदिर का निर्माण करवाया था, जिसे आज ‘दक्षिणेश्वर काली’ मंदिर के नाम से जाना जाता है।
रामकुमार चट्टोपाध्याय को इस मन्दिर के प्रधानपुरोहित नियुक्त किया गया, जो गदाधर चट्टोपाध्याय(बाद में रामकृष्ण परमहंस) के बड़े भाई थे। गदाधर चट्टोपाध्याय को बाद में अपने बड़े भाई के पद पर नियुक्त किया गया और इस मन्दिर में रहते हुए वे स्वयं स्वामी रामकृष्ण परमहंस के रूप में एक विख्यात दार्शनिक, योगसाधक और धर्मगुरु के रूप में उभरे। रानी रासमणि ने ही उन्हें प्रधानपुरोहित के पद पर नियुक्त किया था। तथा वे रामकृष्ण परमहंस की पितृपोषक भी बनीं।

अत्यंत धार्मिक और समाजसेवी प्रवृत्ति की होने के बावजूद, समाज के कुछ वर्ग के द्वारा, तथाकथित छोटी जाति के परिवार में जन्म लेने की वजह से अक्सर उनके साथ भेद भाव किया जाता था। रानी के छोटी जाति में जन्म लेने के कारण कोई भी ब्राह्मण उनके द्वारा बनवाए गए दक्षिणेश्वर मंदिर में पुरोहित बनने के लिए तैयार नही था।
बड़ी मुश्किल से दक्षिणेश्वर काली मंदिर में मां काली की प्रतिमा की प्राण प्रतिष्ठा की गई थी।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस, रानी रासमणि को देवी दुर्गा के अष्टनायिकाओं में से एक माना करते थे।
शायद इस बात में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी अगर हम यह कहें कि रानी रास मणि नहीं तो दक्षिणेश्वर काली मंदिर नहीं। दक्षिणेश्वर काली मंदिर नहीं तो रामकृष्ण परमहंस नहीं और अगर वो नहीं तो हमें हमारे विवेकानंद जी कहां से मिलते। गदाधर चट्टोपाध्याय के रामकृष्ण परमहंस बनने और नरेंद्र नाथ के विवेकानंद बनने की शुरुआत दक्षिणेश्वर काली मंदिर से ही हुई थी।
अगर संक्षेप में रानी रासमणि के जीवन चरित्र को उकेरा जाए तो कुछ ऐसा उनके बारे में छन कर आएगा। विद्रोही…क्रांतिकारी…सुधारक एक महिला! वह भी 19वीं सदी के भारत में – वह रानी ही थीं! एक साधारण घर में जन्मीं, बंगाली अभिजात्य वर्ग के कुलीन व्यक्ति से शादी हुई, जहां, उन्होंने अपने अतीत और वर्तमान को एक साथ मिलाया और एक आदर्श मॉडल का निर्माण किया।
वह पहली महिला रानी रासमणि ही थीं जिन्होंने सती प्रथा ख़त्म करो… विधवाओं को कानूनी सहायता दो और वेश्यावृत्ति पर रोक लगाओ का उद्घोष किया ।एक महिला जिसने समुद्री लुटेरों से दोस्ती करने और ठगों का पुनर्वास करने का साहस किया…
रानी का जीवन एक सामाजिक, साहसिक कार्य है, जहां उन्होंने राजा राम मोहन रॉय के मिशन की कमान संभाली, आधुनिक भारत के सबसे महान संतों में से एक – श्री रामकृष्ण परमहंस की संरक्षक बनीं… और बंगाल में दुर्गा पूजा आज़ हम जिस रूप में देखते हैं, रानी उसकी प्रणेता भी थीं। जान बाज़ार की दुर्गा पूजा।
अमीरों की समृद्धि और गरीबों की जरूरतों के बीच एक पुल का निर्माण करने की कोशिश भी रानी ने ही किया, जिसने वर्ग, समुदाय और जाति के बीच की खाई को पाट दिया गया।
✒️ मनीश वर्मा’मनु’