मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा
आधुनिक परिवेश में सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजने का यदि कोई कार्य कर रहा है तो वह कलाकार ही हैं| मनुष्य को मनुष्यता का पाठ पढ़ाने वाली शिक्षा, जिसमें त्याग, बलिदान और अनुशासन के आदर्श निहित हैं, यदि कहीं संरक्षित है तो वह मात्र लोक कलाओं में ही है| लेकिन कोरोना महामारी के कारण देश भर में कला क्षेत्र के लोग रोजी रोटी के लिए तरस गए है, इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है कि दुनिया भर के लोगो को अपनी कलाओं और हुनर से जगरूक करने वाले लोग अपने अधिकारों के लिए आगे नहीं आये|
अनलॉक-1 लागू हुआ है तो भी इस तरह के कार्यक्रमों की न तो अनुमति है और न ही अवसर है |
उन्होंने अपने आप ही सब कुछ ठीक होने में संतुष्टि समझी लेकिन उनको क्या पता था कि ये दौर बहुत लम्बा चलेगा और मंच, नुक्कड़ व् सिनेमा उनसे कोसों दूर हो जायेगा परिणामस्वरूप आज उनके पास काम नहीं है बड़े कलाकार तो जमा पूँजी पर गुजरा कर लेंगे लेकिन परदे के पीछे के कलाकारों का आज बुरा हाल है उनके लिए तो मजदूरों और प्रवासी लोगो जैसे सुर्खिया, खबरें, योजनाएं लॉक डाउन में ही कैद होकर रह गई है | हमारे देश और प्रदेश में वसंतोत्स्व से त्योहारों का शुभारंभ माना जाता है
कलाकार समाज और संस्कृति के वाहक और महत्त्वपूर्ण अंग होते हैं। यही कलाकार सभ्यता और संस्कृति को समृद्ध व समाज को जागरूक करने का कार्य करते हैं। हमारे देश और प्रदेश में वसंतोत्स्व से त्योहारों का शुभारंभ माना जाता है। यह वह समय होता है जब उत्सव अपनी चरम सीमा पर होते थे और लोगों में खुशी और उत्साह का संचार होता था।
परंतु वर्तमान परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखते हुए यह कहना होगा कि सरकार ने कोरोना संकट से उभरने के लिए सभी तरह के उत्सवों एवं मेलों में सोशल डिस्टेंसिंग और मिनिमम सोशल गैदरिंग को ध्यान में रखते हुए इन पर पाबंदी लगाई है। जैसे-जैसे लॉकडाउन बढ़ता गया, आगे के कार्यक्रम निरस्त होते गये| लॉकडाउन को लागू हुए दो माह से अधिक का समय बीत चुका है। इसे अब खोला जा रहा है, अब जब अनलॉक-1 लागू हुआ है तो भी इस तरह के कार्यक्रमों की न तो अनुमति है और न ही अवसर है |
यहीं से इन कलाकारों का घर-परिवार चलता था। लोक कलाकारों के परिवारों पर इसका सीधा असर देखने को मिल रहा है। इन कलाकारों की रोजी-रोटी व आजीविका का साधन ही ये त्योहार, जागरण, शादियां या भागवत होते थे। अब लॉकडाउन के चलते इनके घरों का चूल्हा जलना मुश्किल हो गया है। ये कलाकार जिस भी क्षेत्र में निपुण होते हैं, उस क्षेत्र में अपनी कला का जौहर बखूबी इन्हीं कार्यक्रमों में प्रदर्शित करते थे, चाहे वह फिर गायन, नृत्य, संगीतकार अथवा अभिनय से ही संबंधित क्यों न हो।
लोक कलाकार, म्यूजिशियन, साउंड सिस्टम आपरेटर और टैंट हाउस वाले अपने-अपने घर में कैद हैं और इन लोक कलाकारों की आजीविका पर कोरोना का ग्रहण लग गया है। भारत के विभिन्न लोकनाट्य यथा रामलीला, रासलीला, नौटंकी, ढोला, चौबोला, स्वांग, नाचा, जात्रा, तमाशा, ख्याल, रम्मान, यक्षगान, दशावतार, करियाला, ओट्टन थुलाल, तेरुक्कुट्टू, भाम कलापम, लोकगायन, वादन, जवाबी कीर्तन, लोकनृत्य, कठपुतली नृत्य, तथा चित्रकारी आदि से जुड़े लाखों कलाकार आज रोजी-रोटी की समस्या से ग्रसित है कुछ लोक कलाकार सोशल मीडिया जैसे फेसबुक पेज अथवा यू-ट्यूब में लाइव आकर लोगों का भरपूर मनोरंजन कर अपने आपको लोगों के बीच जीवंत रखे हुए हैं। लोक कला ही जिनके जीवन का आधार एवं रोजगार है, कोविड-19 के चलते उनका जीवन आज अनिश्चतताओं से भर गया है| उन लोक कलाकारों को यदि छोड़ दें, जिन्होंने किसी तरह से अपनी पहचान राष्ट्रीय या अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बना ली है तो शेष सभी कलाकारों को अपनी कला प्रदर्शन के बदले मात्र इतना ही मिलता है जिससे जैसे-तैसे वे अपना गुजारा ही कर पाते हैं| इनकी कमाई भी इतनी नहीं कि वह बिना कोई कार्यक्रम किये लम्बे समय तक अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें| देश के सुदूर ग्रामीण अंचलों से लेकर बड़े शहरों तक में निवास करने वाले इन कलाकारों की कला का सारा दारोमदार लोक कला के कद्रदानों पर होता है| यह भी सत्य है कि हर कलाकार को प्रतिदिन कार्यक्रम नहीं मिलते हैं| परन्तु वर्ष के कम से कम आठ महीने ऐसे होते हैं जब उन्हें हर माह पन्द्रह से बीस कार्यक्रम तो मिल ही जाते हैं| कोविड-19 के चलते मार्च के तीसरे सप्ताह से सामाजिक दूरी की अनिवार्यता लागू होते ही इनके वो निश्चित कार्यक्रम निरस्त हो गये| जिस गति से देश में कोविड-19 के मरीज बढ़ रहे हैं और इसकी दवा का अभी तक कहीं कोई पता नहीं है, उससे अश्विन नवरात्रि तक के कार्यक्रम भी होते हुए नहीं दिखायी दे रहे हैं| ऐसे में पूर्ण व्यावसायिक लोक कलाकारों के सामने परिवार के भरण-पोषण का गम्भीर संकट उत्पन्न हो गया है| लॉकडाउन के चलते सन्नाटा पसरा है. दुनिया भर में लोगों को घरों की चारदीवारी में कैद करने वाली कोरोना वायरस महामारी ने जीवन से गीत, संगीत, खेलकूद सभी कुछ मानों छीन लिया ह| ऐसे में मानवीय संवेदनाओं के संवाहक की भूमिका निभा रहे लोक कलाकारों की व्यथा और भी गहरी है क्योंकि इनमें से अधिकतर ज्यादा पढे़ लिखे नहीं होने के कारण सोशल मीडिया की शरण भी नहीं ले सकते। ऐसे में ख़ाली बैठे लोक कलाकार आर्थिक मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. सरकार को विचार करना चाहिये कि लोक कलाकारों के लिये कोई प्रबंध किया जाये क्योंकि वे कहां जाकर किससे मांगेंगे। सहायता के लिए भारत सरकार एवं सभी राज्य सरकारों को सोचना चाहिए और जल्द से जल्द कोई मददगार योजना लानी चाहिए, हम सभी को ये दुआ करनी चाहिए कि जल्द ही कोरोना के कहर का बादल छंटे तो उनकी जिंदगी में कलाओं के रंग फिर से सजें. अन्यथा प्रवासी मजदूरों की तरह लोक कलाकारों की ये समस्या बेरोजगारी का भयावह रूप ले सकती है| ऐसे समय में समाज को दिशा देने वाले और अच्छी चीज़ों को जन-जन तक पहुँचाने वाले कहाँ से आएंगे| सरकारों ने जिस तरह से दूसरे राज्यों से घर लौटे बेरोजगारों को रोजगार देने की मुहिम छेड़ी है, उसी तर्ज पर लोक कलाकारों के लिए विशेष नीति बनाकर उन्हें कुछ आर्थिक सहायता उपलब्ध करवाकर उनके तनाव को कम करने की जरूरत है ताकि वो समाज में आये तनाव को कम कर सके। जहां कला व कलाकार का सम्मान होता है, वहीं विकास के साथ-साथ परंपरागत सांस्कृतिक मूल्यों का सम्मान तथा संरक्षण भी होता है। यदि हम कला व कलाकार का सम्मान करेंगे, तभी हम अपनी धरोहर को सहेज पाएंगे |
डॉo सत्यवान सौरभ,
रिसर्च स्कॉलर इन पोलिटिकल साइंस, दिल्ली यूनिवर्सिटी,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार
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