सत्यवान सौरभ की अनुपम दोहा कृति ‘‘तितली है खामोश’’
सन्तों की वाणी से निकले संदेश आज भी सतत रूप से लोक में व्याप्त हैं और उनका माध्यम दोहा छंद ही बना है। दोहा छंद प्राचीन छंद होते हुए भी आज तक साहित्यकारों एवं पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करता रहा है। 21वीं सदी में नए-नए दोहाकार साहित्य जगत में दस्तक दे रहे हैं। युवा कवि सत्यवान सौरभ एक ऐसे ही दोहाकार है जो अपने लेखन की सुगंध पाठकों तक पहुँचा रहें हैं।
हिन्दी के उभरते कवि और समसामयिक विषयों के लेखक सत्यवान सौरभ के नवीन दोहा संग्रह “तितली है खामोश ” को पढ़कर जो आनन्द की अनुभूति हुई वह अतुलनीय है। इस संग्रह का हर एक दोहा, दोहे के व्याकरण पर खरा उतरता है। कवि ने पुस्तक का प्रारम्भ समय सिंधु की वन्दना से किया है जो उनके आशावादी होने का प्रमाण है। साथ ही वो कहते है कि इस छोटे-से जीवन में हमें संघर्षों से सब बाधाओं पर पार पा लेना चाहिए-
नीलकंठ होकर जियो, विष तुम पियो सहर्ष ।
रुको नहीं चलते रहो, जीवन है संघर्ष । ।
समय सिंधु में क्या पता, डूबे; उतरे पार ।
छोटी-सी ये ज़िंदगी, तिनके-सी लाचार । ।
भक्ति काल एवं रीति काल में दोहा छंद में भक्ति ,नीति एवं शृंगार को अपना आधार बनाया किंतु आधुनिक काल में बदलती परिस्थितियाँ ही दोहों की प्रमुख विषय है। आज के समय में सामाजिक परिवेश तेजी से बदल रहा है।
अपने प्यारे गाँव से, बस है यही सवाल ।
बूढा पीपल हैं कहाँ,कहाँ गई चौपाल । ।
रही नहीं चौपाल में, पहले जैसी बात ।
नस्लें शहरी हो गई, बदल गई देहात । ।
कवि ने आज के सामाजिक परिवेश और टूटते रिश्तों का चित्रण करते हुए लिखा है-
नफरत के इस दौर में, कैसे पनपे प्यार ।
ज्ञानी-पंडित-मौलवी, करते जब तकरार ।।
सौरभ मन गाता रहा, जिनके पावन गीत।
अंत वही निकले सभी, वो दुश्मन के मीत ।।
वक्त कराएं है सदा, सब रिश्तों का बोध ।
पर्दा उठता झूठ का, होता सच पर शोध ।।
कवि के चिंतन के परिचायक ये दोहे दृष्टव्य है, उनकी गहरी चिंता आने वाले समय का दर्द बयान कर रही है-
नई सदी ने खो दिए, जीवन के विन्यास ।
सांस-सांस में त्रास है, घायल है विश्वास ।।
बोये पूरा गाँव जब, नागफनी के खेत ।
कैसे सौरभ ना चुभे, किसी पाँव में रेत ।।
कवि ने जन्मदायिनी माँ की आराधना सब धामों से बढ़कर शक्ति प्रदायिनी के रूप में इस प्रकार की है-
तेरे आँचल में छुपा, कैसा ये अहसास ।
सोता हूँ माँ चैन से, जब होती हो पास ।।
माँ तेरे इस प्यार को, दूँ मैं कैसा नाम ।
पाये तेरी गोद में, मैंने चारों धाम ।।
वर्तमान हालात को दृष्टिगत रखते हुए यह दोहा लिखकर कवि ने वर्तमान दौर के रिश्तों का तनाव सामने ला दिया है –
टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव ।
प्रेम जताते ग़ैर से, अपनों से अलगाव ।।
गलती है ये खून की, या संस्कारी भूल।
अपने काँटों से लगे, और पराये फूल ।।
बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी युवा कवि सत्यवान सौरभ गीत, गजल, दोहा, सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक लेखन के अलावा समसामयिक विषयों पर संपादकीय लेखन के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। घमण्ड से दूर दूसरों को दुत्कारने की बजाय वो अपनी वेदना को भी श्रेय मानते हैं और आभार प्रकट करते है –
मेरे मन की वेदना, विपुल रत्न अनमोल ।
पाकर इसको मैं सका, शब्द सीपियाँ खोल।।
प्रेम दिया या दर्द हो, सबका है आभार ।
जीवन पथ पर है तभी, मिला मुझे विस्तार ।।
दोहाकार को पृथ्वी, पर्यावरण, मानव जीवन, तथा जीव जगत की चिन्ता सताती है और वो लिखते हैं-
सच्चा मंदिर है वही, दिव्या वही प्रसाद ।
बँटते पौधे हो जहां, सँग थोड़ी हो खाद ।।
दरख्त ही नमाज हो, दरख़्त ही अजान ।
दरख्त से ही पीर सब, दरख्त से इंसान ।।
धरती खाली-सी लगे, नभ ने खोया धीर ।
अब तो मानव जाग तू, पढ़ कुदरत की पीर । ।
ईश्वर रचित ब्रह्माण्ड के रहस्य की परतें खोलने में मनुष्य आदि काल से लगा हुआ है और आश्चर्यचकित रह जाता है। इस पर कवि लिखता है –
जब नदियाँ उफान ले, करती पार निशान ।
नाव डूब तल में लगे, छूटे हाथ सामान ।।
किस्मत का ये खेल है, या फिर खास कसूर ।
जितने भी हम जब चले, दिल्ली उतनी दूर ।।
कवि वर्तमान में कोरोना वायरस के कारण चल रहे लॉकडाउन को कैसे भूल सकता है। देखिए यह दोहा-
खो बैठे पल में यहीं, जो पाया भरपूर ।
बेगानों की क्या कहें, बैठे अपने दूर ।।
शहरों की दौड़े रुकी, गाँवों बसा तनाव ।
शांत-शांत सागर दिखे, मगर चली न नाव ।।
युवा पीढ़ी आज डिजिटल दौर का शिकार हो चुकी है तथा मां-बाप को घर में ही वीरानी झेलनी पड़ती है। यही नहीं अब सब अपने में ही एकांकी जीवन जी रहें हैं । सत्यवान सौरभ का निम्नलिखित दोहा इस परिस्थिति का सटीक चित्रण करता है-
मन बातों को तरसता, समझे घर में कौन ।
दामन थामे फ़ोन का, बैठे है सब मौन ।।
बूढ़े घर में कैद हैं, पूछ रहे न हाल ।
बचा-खुचा खाना मिले, जीवन हैं बेहाल ।।
आकर बसे पड़ोस में, ये कैसे अनजान ।
दरवाजे सब बंद है, बैठक हुई वीरान ।।
यह भी सत्य है कि आधुनिकता का दम भरते हुए भी समाज विसंगतियों में जी रहा है। व्यक्ति और समाज अब भी लड़का और लड़की में भेद करता है। पुत्र एवं पुत्री के लिए उसके मानदंड अलग-अलग हैं-
बेटे को सब कुछ दिया,खुलकर बरसे फूल ।
लेकिन बेटी को दिए,बस नियमों के शूल ।।
कभी बने है छाँव तो, कभी बने हैं धूप ।
सौरभ जीती लड़कियां, जाने कितने रूप ।।
जीती है सब लड़कियां, कुछ ऐसे अनुबंध ।
दर्दों में निभते जहां, प्यार भरे संबंध ।।
कविता कवि को सूक्ष्म से विराट की ओर, व्यष्टि से समष्टि की ओर ले जाती है। समर्थ रचनाकार वही है जो वर्तमान में रहते हुए भी भविष्य का दृष्टि-बोध रखता हो। सत्यवान सौरभ पर्यावरण के प्रति सजग हैं। प्रकृति का अविवेकपूर्ण एवं अंधाधुंध दोहन उन्हें विचलित करता है। वे मनुष्य को जागृत करते हुए कहते हैं-
हरे पेड़ सब कट चलें, पड़ता रोज अकाल ।
हरियाली का गाँव में, रखता कौन ख्याल ।।
बदल रहे हर रोज ही, हैं मौसम के रूप ।
ठेठ सर्द में हो रही, गर्मी जैसी धूप ।।
साहित्य को समाज का दर्पण कहा जाता है। साहित्य में उस समय की सामाजिक परिस्थितियाँ दृष्टिगोचर होती हैं, किंतु मैं मानता हूँ कि साहित्य समाज का दर्पण नहीं वरन प्रकाश स्तंभ होना चाहिए ताकि वह समाज को दिशा-बोध दे सके,उसका मार्गदर्शन कर सके। वर्तमान समय में बढ़ते नारी अपराधों के प्रति बेटियो को जागृत करते हुए वे कहते हैं —
कदम-कदम पर हैं खड़े, लपलप करे सियार ।
जाये तो जाये कहाँ, हर बेटी लाचार ।।
चीरहरण को देख कर, दरबारी सब मौन ।
प्रश्न करे अँधराज पर, विदुर बने वो कौन ।।
छुपकर बैठे भेड़िये, लगा रहे हैं दाँव ।
बच पाए कैसे सखी, अब भेड़ों का गाँव ।।
जीवन में समस्या है तो समाधान भी है। कविता व्यक्ति को अंधेरे से प्रकाश की ओर ले जाती है ताकि व्यक्ति नए पथ पर अग्रसर हो सके और वे सारी पीड़ाएँ भूलकर नवचेतना से परिपूर्ण हो सके। एक उदाहरण देखिए–
तू भी पायेगा कभी, फूलों की सौगात ।
धुन अपनी मत छोड़ना, सुधरेंगें हालात ।।
तूफानों से मत डरो, कर लो पैनी धार ।
नाविक बैठे घाट पर, कब उतरें हैं पार ।।
नारी के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती। गृह- प्रबंधन में नारी का विशेष योगदान रहता है। यदि यह कहा जाए कि नारी के बिना घर जीवंत नहीं होता तो उचित ही है। नारी की मधुर मुस्कान घर को अनिर्वचनीय आनंद से भर देती है। सत्यवान सौरभ नारी के इस अमूल्य योगदान एवं उसकी पीड़ा को निम्नवत रेखांकित करते हैं–
अपना सब कुछ त्याग के, हरती नारी पीर ।
फिर क्यों आँखों में भरा, आज उसी के नीर ।।
नारी मूरत प्यार की, ममता का भंडार ।
सेवा को सुख मानती, बांटे खूब दुलार ।।
रोज कराहें घण्टिया, बिलखे रोज अजान ।
लुटती नारी द्वार पर, चुप बैठे भगवान ।।
सामाजिक विसंगतियों पर चोट करना कवि-कर्म का अभिन्न अंग है। इस दृष्टि से सत्यवान सौरभ ने अपना दायित्व बखूबी निभाया है। इस दोहा संग्रह में कवि ने कई जगह सामाजिक विसंगतियों की ओर इशारा किया है–
बगिया सूखी प्रेम की, मुरझाया है स्नेह ।
रिश्तों में अब तप नहीं, कैसे बरसे मेह ।।
बैठक अब खामोश है, आँगन लगे उजाड़ ।
बँटी समूची खिड़कियाँ, दरवाजे दो फाड़।।
लौटा बरसों बाद मैं , उस बचपन के गाँव ।
नहीं बची थी अब जहां, बूढी पीपल छाँव ।।
मूक हुई किलकारियां, चुप बच्चों की रेल ।
गूगल में अब खो गए,बचपन के सब खेल ।।
छीन लिए हैं फ़ोन ने, बचपन के सब चाव ।
दादी बैठी देखती, पीढ़ी में बदलाव ।।
सत्यवान सौरभ ने वर्तमान समय की विसंगतियों को सरल शब्दों में स्थान दिया है। एक अभिव्यक्ति उल्लेखनीय है–
स्याही-कलम-दवात से, सजने थे जो हाथ ।
कूड़ा-करकट बीनते, नाप रहें फुटपाथ ।।
धूल आजकल चाटता, दादी का संदूक ।
बच्चों को अच्छी लगे,अब घर में बन्दूक ।।
विकास की दौड़ में व्यक्ति पागलपन की हद तक जा रहा है। संसाधन निरंतर घटते जा रहे हैं। कृषि योग्य भूमि में फसलों की जगह कंकरीट के जंगल उग रहे हैं। कवि ने इस ओर संकेत करते हुए कहा है–
सूनी बगिया देखकर, तितली है खामोश ।
जुगनूं की बारात से, गायब है अब जोश।।
जब से की बाजार ने, हरियाली से प्रीत ।
पंछी डूबे दर्द में, फूटे गम के गीत ।।
चाहे कितनी भी विषम परिस्थितियाँ हो ,साहित्यकार समाज में आशा का संचार करते हुए उसे आगे बढ़ने की ओर प्रेरित करता है। सत्यवान सौरभ ने भी अपने इस उत्तरदायित्व को का बखूबी निर्वहन किया है–
होते कविवर कब भला, वंचित और उदास ।
शब्दों में रस गंध भर, संजोते उल्लास ।।
विचलित करते है सदा,मन मस्तिक के युद्ध ।
अगर जीतना स्वयं को, बन सौरभ तू बुद्ध ।।
लाख चला ले आदमी, तू ध्वंसों के बाण ।
सृजन की चिड़ियाँ करें, तोपों पर निर्माण ।।
रचनाकार भावों का संवाहक होता है। जीवन के लालित्य एवं उसकी संवेदनाओं को आत्मसात करता है। सत्यवान सौरभ के ये शब्द चित्र उन्हें कवि बिहारीलाल के समकक्ष स्थापित करते हैं —
छुप-छुप नैना जब लगे, करने आपस बात ।
होंठों पे आने लगे, दिल के सब जज्बात ।।
पंछी बन के उड़ चले, मेरे सब अरमान ।
देख बिखेरी प्यार से, जब तुमने मुस्कान ।।
घर-आँगन खुशबू बसी, महका मेरा प्यार ।
पाकर तुझको है परी, हुआ स्वप्न साकार ।।
सत्यवान सौरभ का यह दोहा संग्रह कुछ आप बीती और कुछ जगबीती से परिपूर्ण है। यह वर्तमान समय से संवाद करता हुआ काव्य कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। मुझे विश्वास है यह दोहा संग्रह पाठकों को प्रभावित करेगा। सत्यवान सौरभ के दोहा संग्रह “तितली है खामोश ” के दोहे आज के सामाजिक परिवेश आवश्यकताओं तथा लोक की भावनाओं का जीवंत चित्रण है। युवा दोहाकार ने अपने दोहों में जीवन के हर पहलू को छुआ है। सहज और सरल भाषा के साथ इस कृति के दोहों का धरातल बहुत विस्तृत है।
मुझे आशा ही नहीं अपितु विश्वास भी है कि यह कृति समाज को दिशा बोध एवं मार्गदर्शन प्रदान करेगी। मुझे पूरी उम्मीद है कि दोहा कृति “तितली है खामोश ” सभी वर्गों के पाठकों के लिए उपादेय सिद्ध होगी और समीक्षकों की कसौटी पर भी खरी उतरेगी। इस अनमोल दोहा कृति के लिए मैं युवा कवि सत्यवान सौरभ को बधाई देता हूँ तथा उनके उज्जवल भविष्य की मंगल कामना करते हुए, आशा करता हूँ कि भविष्य में ऐसी ही श्रेष्ठ कृतियों का सृजन कर समाज को बेहतरीन उपहार देते रहेंगे।
— डॉ० रामनिवास ‘मानव’
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, हिंदी-विभाग,
सिंघानिया विश्वविद्यालय, पचेरी बड़ी (राज०)