देवर्षि नारद सृष्टि के प्रथम पत्रकार हैं
देवर्षि नारद सृष्टि के प्रथम पत्रकार हैं
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आज यानी 28मई को नारद जयंती है। देवर्षि नारद की जयंती हर साल ज्येष्ठ मास के कृष्णपक्ष की द्वितिया तिथि को मनाई जाती है। देवर्षि नारद भगवान विष्णु के 24 वें अवतार में तीसरे अवतार है। शास्त्रों के अनुसार नारद मुनि, ब्रह्मा के सात मानस पुत्रों में से एक हैं। उन्होंने कठिन तपस्या से देवर्षि पद प्राप्त किया है। वे भगवान विष्णु के अनन्य भक्तों में से एक माने जाते हैं। देवर्षि नारद आए धर्म के प्रचार तथा लोक-कल्याण के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते हैं। शास्त्रों में देवर्षि नारद को भगवान का मन भी कहा गया है। श्रीमद्भागवतगीता के दशम अध्याय के 26वें श्लोक में स्वयं भगवान श्रीकृष्ण ने इनकी महत्ता को स्वीकार करते हुए कहा है-
।।श्लोक।।
अश्वत्थ: सर्ववृक्षाणां देवर्षीणां च नारद:।
गन्धर्वाणां चित्ररथ: सिद्धानां कपिलो मुनि:॥ २६॥
सम्पूर्ण वृक्षोंमें पीपल, देवर्षियोंमें नारद, गन्धर्वोंमें चित्ररथ और सिद्धोंमें कपिल मुनि (मैं हूँ)।
नारद जी के नाम का अर्थ
नाराणां ज्ञानं ददातिति नारदः
अर्थात:- जो नरो यानी मनुष्यों को ज्ञान प्रदान करें वही नारद हैं।
नारद जी ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। देवताओं के ऋषि होने के कारण इनको देवर्षि कहा गया है। तीनों लोकों की सूचनाओं के आदान प्रदान और सच का पता लगाने के कारण इनको प्रथम पत्रकार की महान उपाधि भी दी जाती है।
नारद जी ज्ञानी होने के साथ साथ बहुत तपस्वी भी थे। नारद जी हमेशा चलायमान रहते थे। वे कहीं ठहरते नहीं थे। नारद जी भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमेशा नारायण नाम का जप ही उनकी आराधना है। इनकी वीणा महती के नाम से जानी जाती है। कहा जाता है कि नारद जी के श्राप के कारण ही भगवान राम को सीता जी के वियोग का सामना करना पड़ा।
देवर्षि नारद बताते हैं भक्ति के रहस्य
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वीणा को बजाते हुए हरिगुन गाते हुए वो तीनों लोकों में विचरण करते हुए अपनी भक्ति संगीत से तीनो लोकों को सुरभित करते हैं। नारद जी ने ही उर्वशी का विवाह पुरुरवा के साथ करवाया। वाल्मीकि को रामायण लिखने की प्रेरणा भी नारद जी ने पितामह ब्रह्मा जी के आदेश पर दी। व्यास जी से श्रीमद्भागवत महापुराण की रचना करवायी।
ये व्यास, बाल्मीकि और शुकदेव के गुरु हैं। ध्रुव को भक्ति मार्ग का उपदेश दिया। देवर्षि नारद द्वारा लिखित भक्तिसूत्र बहुत महत्वपूर्ण है। इसमें भक्ति के रहस्य और सूत्र बताये गए हैं।
भगवान की भक्ति प्राप्त करने का यह श्रेष्ठ दिवस है। इस दिन नारायण नाम का जप करें। श्री विष्णुसहस्रनाम का पाठ करें। इस दिन श्री रामचरितमानस का पाठ कीजिए। प्यासे को पानी पिलाइये। जो लोग पत्रकारिता के फील्ड में कार्य कर रहे हैं उनको यह तिथि महापर्व के रूप में मनाना चाहिए।
इस दिन पत्रकारिता से जुड़े लोग नारद जी की प्रतिमा को सामने रख पुष्प अर्पित करें और इनकी निष्पक्षता से सीख लेकर लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ को खूब मजबूत करें।
करें विष्णु, शिव और लक्ष्मी पूजन
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इस दिन विष्णु जी की पूजा के साथ साथ लक्ष्मी पूजा भी करें। श्री सूक्त का पाठ करें। नारद जी भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। गीता का पाठ करें। अन्न और वस्त्र का दान करें। माता पार्वती और भगवान शिव के विवाह में नारद जी की महती भूमिका थी।
जिन कन्याओं का विवाह तय न हो पा रहा हो वो आज के दिन श्री रामचरितमानस के शिव पार्वती विवाह की कथा को पढ़ें और सुनायें। नारद भक्ति से भगवान शिव भी प्रसन्न होते हैं।
इन चीजों का करें दान
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माता पार्वती तो बहुत ही प्रसन्न होती हैं। इस दिन दुर्गासप्तशती का पाठ भी मनोवांछित फल की प्राप्ति करवाता है। नारद जयंती के दिन भगवान विष्णु के मंदिर में भगवान श्री कृष्ण को बांसुरी भेट करें। माता सरस्वती की उपासना करें। ऐसा करने से आपको मनोवांछित फल की प्राप्ति होगी।
इस दिन ब्राह्मण को पीला वस्त्र दान करें। यह महीना बहुत गर्मी का होता है, अत: जगह-जगह जल की व्यवस्था करें और छाते का दान करें। अस्पताल में गरीब मरीजों में शीतल जल पिलायें और फल का वितरण करें। सभी नौ ग्रहों को प्रसन्न करने के लिए आज का दिन बहुत महत्वपूर्ण है। नव ग्रहों के बीज मन्त्र का जप कर हवन करें।
नारदजी का अभिमान-भंग और माया का प्रभाव।
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एक बार नारदजी हिमालय पर तपस्या कर रहे थे। सहस्त्रों वर्ष बीत गए पर उनकी समाधि भंग न हुई। यह देखकर इन्द्र को बड़ा भय हुआ अत: इन्द्र ने कामदेव और बसंत को बुलाकर नारदजी की तपस्या भंग करने भेजा।
कामदेव ने सभी कलाओं का प्रयोग कर लिया पर नारदजी पर उसकी एक न चली क्योंकि यह वही स्थान था जहां भगवान शंकर ने कामदेव को जलाया था। अत: इस स्थान पर कामदेव के वाणों का कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। विवश होकर कामदेव इन्द्र के पास लौट आया और
कहा–’नारदजी में न काम ही है न क्रोध ही। क्योंकि उन्होंने मेरा मधुर वचनों से आतिथ्य किया।’ यह सुनकर सब दंग रह गए।
तपस्या पूरी होने पर ‘कामदेव पर मेरी विजय हुई है’ ऐसा मानकर नारदजी के मन में व्यर्थ ही गर्व हो गया। वे यह नहीं समझ सके कि कामदेव के पराजित होने में भगवान शंकर का प्रभाव ही कारण है।
नारदजी अपना काम-विजय सम्बन्धी वृतान्त बताने के लिए भगवान शंकर के पास कैलास पर्वत पर गए और अपनी कथा सुनाई। शंकरजी ने कहा आप अपनी यह बात कभी किसी से न कहना। यह सिद्धि सम्बन्धी बात गुप्त रखने योग्य है।
यह बात भगवान विष्णु को बिल्कुल न बताइयेगा। नारदजी को यह बात अच्छी नहीं लगी और वे वीणा लेकर वैकुण्ठ को चल दिए और वहां जाकर भगवान विष्णु को अपना काम-विजय प्रसंग सुनाने लगे। भगवान ने सोचा–’इनके हृदय में समस्त शोक का कारण अहंकार का अंकुर उत्पन्न हो रहा है, सो इसे झट से उखाड़ डालना चाहिए।’
विष्णुलोक से जब नारदजी पृथ्वी पर आए तो उन्हें वैकुण्ठ से भी सुन्दर एक बड़ा मनोहर नगर दिखाई दिया। भगवान की माया की बात वे समझ न सके। लोगों से पूछने पर पता चला कि इस नगर का राजा शीलनिधि अपनी पुत्री ‘श्रीमती’ का स्वयंवर कर रहा है जिसमें देश-विदेश से राजा आये हैं।
नारदजी भी राजा के यहां पहुँच गए। राजा और उसकी पुत्री ने नारदजी को प्रणाम किया। इसके बाद राजा ने अपनी पुत्री के भाग्य के बारे में नारदजी से पूछा। नारदजी उसके लक्षण देखकर चकित रह गए।
नारदजी ने राजा को बताया–’आपकी यह पुत्री अपने महान भाग्य के कारण धन्य है और साक्षात् लक्ष्मी की भांति समस्त गुणों से सम्पन्न है। इसका भावी पति निश्चय ही भगवान शंकर के समान वैभवशाली, सर्वेश्वर, किसी से पराजित न होने वाला, वीर, कामविजयी तथा सम्पूर्ण देवताओं में श्रेष्ठ होगा।’
अब नारदजी स्वयं काम के वशीभूत होकर उस राजकुमारी से विवाह करना चाहते थे। उन्होंने विष्णु भगवान से प्रार्थना की। प्रभु प्रकट
हो गए।
नारदजी बोले–’नाथ ! मेरा हित करो। मैं आपका प्रिय सेवक हूँ। राजा शीलनिधि ने अपनी पुत्री के विवाह के लिए स्वयंवर रचाया है। आप अपना स्वरूप मुझे दे दीजिए। आपकी कृपा के बिना राजकुमारी को प्राप्त करने का कोई उपाय नहीं है।’ भगवान ने कहा–
‘वैद्य जिस प्रकार रोगी की औषधि करके उसका कल्याण करता है, उसी प्रकार मैं तुम्हारा हित अवश्य करूंगा।’
यद्यपि भगवान का कथन स्पष्ट था किन्तु काम से व्याकुल नारदजी को कुछ समझ नहीं आया। और वे यह समझकर कि ‘भगवान ने मुझे अपना रूप दे दिया’ स्वयंवर-सभा में जा विराजे। भगवान ने उनका मुख हरि (हरि भगवान का एक नाम है और बंदर को भी हरि कहते हैं) जैसा बना दिया और शेष अंग अपने जैसे बना दिए थे।
अब राजकुमारी जयमाल लेकर सभा में आई तो नारदजी का बंदर का मुख देखकर कुपित हो गई और उसने वहां सभा में बैठे विष्णु भगवान को जयमाला पहना दी। भगवान राजकुमारी को लेकर चले गए। नारदजी बड़े दुःखी हुए। वहां उपस्थित शिवजी के गणों ने नारदजी को अपना मुंह दर्पण में देखने के लिए कहा।
दर्पण तो था नहीं, जब नारदजी ने पानी में अपना मुंह देखा तो वानरमुख देखकर उन्हें बहुत क्रोध आया। और वे विष्णुलोक के लिए चल दिए। रास्ते में ही उन्हें भगवान विष्णु राजकुमारी के साथ मिल गए। नारदजी क्रोध में बोले–
मैं तो जानता था कि तुम भले व्यक्ति हो परन्तु तुम सर्वथा विपरीत निकले। समुद्र-मंथन के समय तुमने असुरों को मद्य पिला दिया और स्वयं कौस्तुभादि चार रत्न और लक्ष्मी को ले गए। शंकरजी को बहलाकर विष दे दिया।
यदि उन कृपालु ने उस समय हलाहल को न पी लिया होता तो तुम्हारी सारी माया नष्ट हो जाती और आज हमारे साथ यह कौतुक न होता। तुमने मेरी अभीष्ट कन्या छीनी, अतएव तुम भी स्त्री के विरह में मेरे जैसे ही विकल होओगे। तुमने जिन वानरों के समान मेरा मुंह बनाया था, वे ही उस समय तुम्हारे सहायक होंगे।’
भगवान ने अपनी माया खींच ली। अब नारदजी देखते हैं तो न वहां राजकुमारी है और न ही लक्ष्मीजी। वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे और ‘त्राहि त्राहि’ कहकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े। भगवान ने भी उन्हें सान्त्वना दी और आशीर्वाद दिया कि अब माया तुम्हारे पास न फटकेगी।
श्री नारद जी ही एकमात्र ऐसे संत हैं, जिनका सभी देवता और दैत्यगण समान रूप से सम्मान एवं विश्वास करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने नारद
जी के सम्बन्ध में कहा है–
मैं दिव्यदृष्टि सम्पन्न श्री नारद जी की स्तुति करता हूँ। जिनके मन में अहंकार नहीं है, जिनका शास्त्रज्ञान और चरित्र किसी से छिपा नहीं है, उन देवर्षि नारद को मैं प्रणाम करता हूँ। जो कामना अथवा लोभवश झूठी बात मुँह से नहीं निकालते और सभी प्राणी जिनकी उपासना करते हैं, उन नारदजी को मैं प्रणाम करता हूँ।
आचार्य स्वामी विवेकानन्द जी
ज्योतिर्विद व सरस् श्रीमद्भागवत व श्री रामकथा व्यास श्रीधाम श्री अयोध्या जी संपर्क सूत्र:-9044741252